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प्रस्तावना
अर्थात् ताम्बूल, औषध और जलको छोड़कर सूर्यास्तके बाद जिसने भोजन या फलाहारको अभिलाषा को उसने दर्शन ( श्रदान ) को दूर कर दिया। अहिंसाणुव्रतके अतिचार
अहिंसाणुव्रतके पांच अतीचार सभी श्रावकाचारोंमें बतलाये है जो समान है । अतोचार कहते हैं, व्रतका ध्यान रखते हुए भी उसमें दूषण लगा लेना। जिन दूषणोंसे व्रत पूरी तरह खण्डित नहीं होता किन्तु आंशिक खण्डित हो जाता है वे दूषण अतीचार कहे जाते हैं । वे अतीचार हैं, मनुष्य या पशुको बांधना, दण्डे वगैरहसे पीटना, नाक वगैरहका छेदना, शक्तिसे अधिक भार लादना और समयपर खाना-पीना नहीं देना। ये अतिचार बहुत प्राचीन हैं, तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी ये ही अतिचार गिनाये गये हैं। इनसे यह स्पष्ट है कि अहिंसा अणुव्रतका सम्बन्ध केवल खान-पानकी शुद्धिसे ही नहीं था किन्तु व्यवहारको शुद्धिसे भी था। ऊपरके पांचों अतिचार मनुष्य और पशुओंके साथ किये जानेवाले व्यवहारसे ही सम्बन्ध रखते हैं।
सत्याणुव्रत
शेष चार अणुव्रतोंका वर्णन करनेसे पहले यह बता देना आवश्यक है कि वे अहिंसा व्रतके रक्षक मात्र हैं-स्वतन्त्र नहीं हैं । जैसे किसान खेतकी रक्षाके लिए चारों ओर बाड़ा लगा देता है वैसे ही अहिंसा व्रतको रक्षाके लिए वे चारों बाड़रूप हैं, उनके पालन करनेसे अहिंसावतकी रक्षा होती है। किन्तु जहां उन चारों व्रतोंमें-से कोई भी व्रत अहिंसाका रक्षक न होकर भक्षक होता हो वहाँ अहिंसाकी रक्षाका ही ध्यान रखा जाता है, शेष व्रतोंका नहीं। इसीलिए रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सत्याणुव्रतका स्वरूप बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्रने लिखा है,
"स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदं ।
यत्तद्वद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥५५॥" जो स्थूल झूठ न स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है तथा जब सत्य बोलनेसे दूसरेका अपकार होता हो तो ऐसे समय सत्य भी न स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है उसे स्थूल झुठका त्यागो या सत्याणुव्रती कहते हैं। आचार्य उमास्वामीने अपने तत्त्वार्थसूत्र में असत्यका लक्षण बतलाया है,
"भसदभिधानमनृतम् ।" भ० ७, सू० १४ ॥ इसका व्याख्यान करते हुए सर्वार्थसिद्धिके कर्ताने लिखा है, "असत्का अर्थ है-अप्रशस्त। और जिससे प्राणीको पीडा पहुंचती हो वह वचन, चाहे वह सच्चा हो या झूठा, अप्रशस्त है अतः उसका बोलना असत्य है ।" जैसे काने मनुष्यको काना कहना यद्यपि सत्य है किन्तु है मर्मभेदी, अतः वह झूठमें ही सम्मिलित है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमें असत्यके चार भेद किये हैं-विद्यमान वस्तुका निषेध करना पहला असत्य है, जैसे देवदत्तके घरमें होते हुए भी यह कहना कि देवदत्त यहां नहीं है। अविद्यमान वस्तुको विद्यमान बतलाना दूसरा असत्य है, जैसे घटके नहीं होते हुए भी यह कहना कि घट है। कुछका कुछ कह देना तीसरा असत्य है, जैसे बैलको घोड़ा बतलाना । चौथे असत्यके भी तीन भेद हैं-गहित, सावद्य और अप्रिय । किसीकी चुगली करना, हंसी करना, किसीको कठोर बातें कहना, बक-झक करना आदि गहित कहलाता है । मारो, काटो, इसके घरमें आग लगा दो, इसे लूट लो इत्यादि वचनोंको सावध कहते हैं । जो वचन वैर, शोक, कलह, खेद और सन्ताप करनेवाला हो वह अप्रिय है । इस प्रकारके वचन चूंकि प्रमादके कारण ही बोले जाते हैं इसलिए ये सब हिंसामें ही सम्मिलित हैं । किन्तु जहां कोई हितको दृष्टिसे दूसरेको कठोर शब्द कहता है वहाँ उसका उद्देश्य सत् होनेसे वे कठोर वचन उक्त वचनोंमें गभित नहीं समझे जाते ।