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उपासकाध्ययन
अहिंसाणुव्रतका वर्णन करते हुए सरक्षामें तत्पर श्रावकोंको सदा मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बर फलोंके खानेका त्याग करना आवश्यक बतलाया है।
"मद्यमांसमधुक्षीरक्षोणीरुहफलाशनम् ।
वर्जनीयं सदा सद्भित्रसरक्षणतत्परैः ॥७६५॥" अपने उपासकाचारमें भी व्रतोंका वर्णन प्रारम्भ करते हुए आचार्य अमितगतिने रात्रिभोजनके साथसाथ पांच उदुम्बर और तीन मकारका त्याग आवश्यक बतलाया है क्योंकि उनके त्यागनेसे व्रत पुष्ट होते हैं,
"मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं त्रिधा।
कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तन पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥१॥" किन्तु इन्हें मूलगुण रूपसे नहीं बतलाया। सावयधम्मदोहामें भी मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बरोंके त्यागको अष्टमूलगुण बतलाया है,
"मजु मंसु महु परिहरहि करि पंचुंबर दूरि।
पायहं अंतरि अट्टहं मि तस उप्पज्जई भूरि ॥२२॥" आगे लिखा है,
"अट्टई पालइ मूलगुण पियइ जि गालिउ णीरु ।
अह चित्तें सुविसुद्धइण सुच्चइ सम्वु सरीरु ॥२६॥" अर्थात् आठ मूलगुणोंको पालो और पानो छानकर पियो ।
विक्रमको तेरहवीं शतीमें पं० आशाधरजी नामके बहुश्रुत विद्वान् हो गये हैं। उन्होंने अपनेसे पूर्वके अनेक ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंका आलोडन करके जो सागारधर्मामृत नामका श्रावकाचार रचा है, उसमें भी उन्होंने इन्हीं आठ मूलगुणोंको गिनाया है और साथ हो साथ मूलगुणोंके सम्बन्धमें आचार्य समन्तभद्र और महापुराणकी जो मान्यता थी उसका भी उल्लेख कर दिया है,
"तत्रादौ श्रद्दधजैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झत्पञ्च क्षीरिफलानि च ॥२॥ अष्टेतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा।
फलस्थाने स्मरेत् द्यूतं मधुस्थान इहैव वा ॥३॥" अर्थात् गृहस्थधर्ममें सबसे प्रथम जिनागमपर श्रद्धान रखते हुए हिंसाको छोड़ने के लिए मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बर फलोंका त्याग करना चाहिए। ये गृहस्थोंके आठ मूलगुण हैं। स्वामो समन्तभद्राचार्यके मतानुसार पांच उदुम्बर फलोंके स्थान में स्थूल हिंसा आदि पांच पाप लेना चाहिए । अर्थात् पांच अणुव्रत और मद्य मांस तथा मधुका त्याग और महापुराणके मतसे स्वामी समन्तभद्रसम्मत अष्टमूलगुणोंमें मधुके स्थानमें जुआ लेना चाहिए।
अष्टमूलगुणोंका निर्देश न करनेवाले और करनेवाले ग्रन्थकारोंके मतोंका उल्लेख करनेके बाद उसपर विचार किया जाता है : १. जिन ग्रन्थकारोंने अष्टमूलगुणोंका निर्देश नहीं किया उनमें से आचार्य कुन्दकुन्दका चारित्रप्राभृत तो
बहुत ही संक्षिप्त है । उस प्राभूतमें उन्होंने श्रावक और मुनिधर्मका आभास मात्र करा दिया है, तथा उनकी प्रवृत्ति मनिधर्मका ही वर्णन करनेकी ओर रही है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रवचनसार. का चारित्राधिकार है । अतः यदि उन्होंने श्रावकके अष्टमूलगुणोंका निर्देश नहीं किया तो उससे वस्तुस्थितिपर अधिक प्रकाश नहीं पड़ सकता।