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प्रस्तावना
जैन श्रावकके लिए उपासक शब्द भी व्यवहत होता था। प्राचीन आगमोंमें-से जिस आगममें श्रावक धर्मका वर्णन था उसका नाम ही उपासकाध्ययन था। इसीसे सोमदेव सूरिने अपने यशस्तिलक नामक ग्रन्थके जिन दो अन्तिम अध्यायों में श्रावकाचारका वर्णन किया है उनका नाम उपासकाध्ययन रखा है।
गृहस्थको संस्कृतमें 'सागार' भी कहते हैं। 'अगार' कहते हैं गहको। उसमें जो रहे सो सागार है। अतः गहस्थ धर्मको सागार धर्म भी कहते हैं । उक्त कारणोंसे जैन गृहस्थके आचारको बतलानेवाले ग्रन्थोंका नाम श्रावकाचार उपासकाध्ययन या सागारधर्मामत आदि रखा गया है। जैनसाहित्यमें आज एतद्विषयक अनेक ग्रन्थ वर्तमान हैं, जो प्रकाशमें आ चुके हैं। इसी प्राप्त साहित्यके आधारपर ऐतिहासिक क्रमसे श्रावकाचारोंका तुलनात्मक पर्यवेक्षण अनेक दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण होगा। इसीसे प्रस्तावनाके इस भागमें इसका एक प्रयत्न किया गया है।
श्रावकके बारह व्रत होते हैं-पांच अणव्रत, तीन गणव्रत और चार शिक्षाप्रत । इस विषयमें सभी ग्रन्थकार एकमत है और अणुव्रतके पांच भेदोंके सम्बन्धमें भी कोई मतभेद नहीं है, यदि कुछ भेद है तो मूलगुण, गुणव्रत और शिक्षाबतके भेदोंको लेकर हो है । किन्तु उस भेदको मतभेद न कहकर दृष्टिभेद कहना अधिक उपयुक्त होगा। आगेके विश्लेषणसे इसपर स्पष्ट प्रकाश पड़ सकेगा। सबसे पहले हम मूलगुणोंको ही लेते हैं ।
मूल-गुण
आचार्य कुन्दकुन्दने अपने 'चारित्रप्राभृत' में श्रावकधर्मका भी वर्णन किया है, किन्तु उसमें उन्होंने ग्यारह प्रतिमाओंके नाम गिनाकर श्रावकके उक्त बारह व्रतोंको ही चार गाथाओंसे बतला दिया है और उन्हें ही श्रावकका आचार बतलाया है । श्रावकके मूल गुणोंका कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया।
आचार्य उमास्वामीने अपने तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें पुण्यास्रवके कारणोंका वर्णन करते हुए श्रावकधर्मका वर्णन किया है। किन्तु उन्होंने भी श्रावकके उक्त बारह व्रतोंको ही बतलाया है। इतनी विशेषता
कि उन्होंने पांचों व्रतोंका स्वरूप और श्रावकके बारह व्रतोंके अतीचार भी बतलाये हैं, परन्तु मूलगुण-जैसी कोई चीज उन्होंने नहीं बतलायी । तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार स्वामी पूज्यपाद, भट्टाकलंक और विद्यानन्दिने भी अपनी टीकाओंमें मल गुणोंका कोई उल्लेख नहीं किया।
आचार्य रविपणने वि० सं० ७३४ के लगभग अपना पद्मचरित, जिसे पद्मपुराण कहते है, रचा था। उसके चौदहवें पर्वमें उन्होंने श्रावकधर्मका निरूपण एक केवलोके मुखसे कराया है। उसमें भी उन्होंने श्रावकके बारह व्रतोंका ही निरूपण किया है। किन्तु अन्त में लिखा है कि मध, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्यासंगमके त्यागको नियम कहते है ।
आगे इसका विवेचन करते हुए ग्रन्थकारने रात्रिभोजन वर्जनपर बहुत जोर दिया है और फिर लिखा है कि जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रिभोजन, चोरो और परस्त्रीका सेवन करता है वह अपने इस
१. "पंचेवणुब्वयाई गुणन्वयाइं हवंति तह तिष्णि ।
सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ॥२२॥" २. "मधुनो मद्यतो मांसाद् ततो रात्रिभोजनात् ।
वेश्यासंगमनाचास्य विरतिनियमः स्मृतः ॥२०॥"