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प्रस्तावना
को जाती है । नैवेद्यके सम्बन्ध रामायणमें लिखा है कि जो वस्तु पूजक स्वयं खाता है वही अपने देवताको भी अर्पित करता है।'
संक्षेपमें यह वैदिकपूजा-पद्धति है। इसका प्रभाव उत्तरकालमें जैनपूजा-पद्धतिपर भी पड़ा प्रतीत होता है । इस विषयमें स्वतन्त्र रूपसे विशेष शोध-खोजको आवश्यकता है। दिक्पालादिककी पूजा
अभिषेकादिके प्रारम्भमें दिक्पालादिके आवाहनकी प्रथा बहुत प्राचीन प्रतीत नहीं होती ; क्योंकि वरांगचरित जैसे ग्रन्थमें, जिसमें अभिषेकविधिका सांगोपांग वर्णन है, दिक्पालादिके आवाहनका नाम भी नहीं है। उत्तरकालमें वैदिक क्रिया-काण्डका विशेष जोर रहा और उसीके प्रभावसे प्रभावित होकर जैनाचारमें भी इस तरहकी बातें प्रविष्ट हो गयी प्रतीत होती हैं। नौवों-दसवीं शताब्दोके साथ ही श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्यका विपुल सर्जन मिलता है, उसीके साथ पूजापाठ और प्रतिष्ठाविधानविषयक ग्रन्थोंकी रचना भी उपलब्ध होती है। उसी कालके साहित्य में शासन देवताओंके चमत्कारका भी दर्शन होता है।
लगभग इन्हीं शताब्दियोंमें हो भारतमें तान्त्रिक मका प्राबल्य बढ़ा और उसके प्रभावसे कोई धर्म अछूता नहीं रहा । तान्त्रिक धर्ममें देवी-देवताओंकी आराधनाका ही प्राबल्य था।
श्री पी० बी० देसाईने अपनी 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया' नामक पुस्तक में यक्षो संस्कृतिपर भी प्रकाश डाला है। तमिलनाडमें यक्षी संस्कृतिका उद्गम बतलाते हुए श्री देसाईने लिखा है कि तमिलनाडमें जैनधर्मको शैव और वैष्णवधर्मोंसे टक्कर लेनी पड़ी। शैव और वैष्णवधर्ममें पार्वती और लक्ष्मीपूजाका प्राधान्य था क्योंकि ये दोनों शिव और विष्णुको अर्धांगिनी थीं। उधर जैनधर्ममें तीर्थकर जिनकी कोई स्त्री नहीं थी, अतः भक्त जनताके मनको आकृष्ट करने के लिए जैनाचार्योंने अपने धर्ममें यक्षीपूजाका आविष्कार किया और उसे खूब बढ़ावा दिया।
प्राप्त यक्षी मूर्तियों से पता चलता है कि तमिलनाडमें यक्षी अम्बिकाको सबसे अधिक मान्यता थी। उसके बाद सिद्धायिकाका स्थान था, किन्तु पद्मावतीकी उतनी मान्यता नहीं थी।
जैनाचार्योंमें मन्त्रविद्याका भी उत्तरकालमें विशेष प्रचार था, यह बात श्रवणबेलगोलाके लेखोंसे प्रमाणित होती है। उसके लेख नं. ६६-६७ में श्रीधरदेव और पद्मनन्दिको मन्त्रवादीश्वर कहा है। मल्लिषेण भी मन्त्र-तन्त्रवादी थे। उन्होंने ज्वालिनीकल्प नामक ग्रन्थकी रचना की है। ज्वालिनी तान्त्रिक यक्षिणी है। दक्षिणमें उसकी भी विशेष मान्यता थी। मल्लिषेणका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। उसने भैरवपद्मावतीकल्प नामका भी ग्रन्थ रचा है। उसमें पद्मावतीकी सहायतासे शक्ति प्राप्त करनेके मन्त्र-तन्त्रोंका वर्णन है। कर्नाटक में दसवीं शताब्दीमें पद्मावतीकी बहुत मान्यता थी। 'पद्मावती देवी लब्धवरप्रसाद' यह उस समयका सम्मान्य विरुद था, जिसे छोटे-मोटे शासक बडे गौरवसे धारण करते थे। उस समयके टीकाकार अनन्तवीर्यने और वादिराजने अकलंककृत न्यायविनिश्चयकी टीकामें 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतलक्षणको पद्मावतीके द्वारा सीमन्धर स्वामीके समवसरणसे लाकर पात्रकेसरी स्वामीको देने किया है। श्रवणबेलगोलकी मल्लिघेणप्रशस्तिमें भी एक श्लोक इसी आशयका दिया है,
"महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावतीसहाया विलक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥"
१. “यदमः पुरुषो भवति तदशास्तस्य देवताः।"-अयोध्याकाण्ड १०३, ३० । २. यह पुस्तक जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित हुई है ३. इसके लिए न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम मागको प्रस्तावनाका पृष्ठ ७४ देखें।