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उपासकाध्ययन
आठों द्रब्योंको अलग-अलग चढ़ानेके पश्चात् उन्हें मिलाकर अर्ध चढ़ानेका उल्लेख न तो सोमदेवके उपासकाध्ययनमें है और न भावसंग्रहमें है ।
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पूजनका वास्तविक फल वही है जो सोमदेवने बताया है। जिनेन्द्रकी पूजासे भौतिक सुख-कामना करना उपयुक्त नहीं । आज-कल भी पूजनके अन्तमें शान्तिविधानके पश्चात् 'क्षेमं सर्वप्रजानां ' तथा 'शास्त्राभ्यासो जिन पतिनुति:' आदि श्लोकोंके द्वारा वही प्रार्थना की जाती है, जो सोमदेवने बतलाया है ।
पूजाफलके बाद एक श्लोक में सोमदेवने लिखा है, "हे भगवन् ! शरीरके आलस्यसे या इन्द्रियोंके इधरउधर लग जानेसे अथवा आत्माकी अन्यमनस्कतासे अथवा मनकी चपलतासे या बुद्धिकी जड़तासे अथवा वाणीमें सौष्ठव की कमी के कारण आपके स्तवन में मुझसे जो कुछ प्रमाद हुआ है वह मिथ्या हो" ।। ५६५ ।। इसी भावके सूचक 'ज्ञानतोऽज्ञानतो वाऽपि' या 'बिन जाने वा जानके' आदि पद्य आज भी पूजनके अन्त में पढ़े जाते हैं । इसके आगे सोमदेव के उपासकाध्ययनमें यह विसर्जन नहीं है कि 'भगवन्, अपना अपना भाग लेकर अपने अपने स्थानको जाओ ।' वस्तुतः यह होना भी नहीं चाहिए ।
पंचामृताभिषेक
प्रसंगवश पंचामृताभिषेक के विषयमें भी विचार कर लेना उपयुक्त होगा । जिनबिम्बका अभिषेक तीर्थंकरोंके जन्मकल्याणक के समय सुमेरु पर्वतपर इन्द्रके द्वारा किये गये अभिषेकका हो प्रतिरूप है । सोमदेवने अभिषेकके अवसरपर सन्निधापन क्रियाका वर्णन करते हुए लिखा है, “यहो वे जिनेन्द्रदेव हैं, यह सिंहासन ही सुमेरुपर्वत है, और कलशों में स्थित जलादि ही साक्षात् क्षीरसमुद्रका जल है ।" आज-कल भी अभिषेकके प्रारम्भ में इस प्रकारका सन्निधापन किया जाता है ।
इन्द्र ने केवल क्षीरसमुद्र के जलसे ही भगवान्का अभिषेक किया था, यद्यपि जैन मान्यता के अनुसार क्षीरसमुद्रके पश्चात् ही घृतवर और इक्षुवर नामके समुद्र भी हैं, किन्तु उनके जलसे भगवान्का अभिषेक नहीं किया गया। फिर भी जैनपरम्परामें घी, दूध, दही आदिसे अभिषेककी परम्परा कैसे चल पड़ी, यह प्रश्न विचारणीय है ।
सोमदेव से पूर्वका कोई श्रावकाचार या पूजा-प्रतिष्ठा पाठ ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें अभिषेक पूजा आदिका विधान हो । भावसंग्रहमें इस तरहका वर्णन है, किन्तु उसे सोमदेवके पहलेकी रचना माननेमें सन्देह है । कतिपय पुराण सोमदेव से पहले के हैं और उनमें से कुछेक में दूध, दही आदिसे अभिषेकका उल्लेख है ।
पद्मपुराण ( प ६८ श्लोक १४ ) में जिनबिम्बके अभिषेक के लिए घी, दूध आदिसे पूर्ण कलशोंका उल्लेख है । हरिवंशपुराण (सर्ग २२, श्लोक २१ ) में भी क्षीर, इक्षुरस, घी, दही और जलसे भगवान्का अभिषेक करने का उल्लेख है; किन्तु वरांगचरित ( सर्ग २३ ) में जो हरिवंशपुराणसे प्राचीन है अभिषेकका विस्तृत वर्णन होते हुए भी ओर दूध, दही आदिसे भरे कलशोंका उल्लेख होते हुए भी उनसे अभिषेक किये जानेका उल्लेख नहीं जलसे अभिषेकका अवश्य उल्लेख है । उसमें अभिषेककी पूरी विधिका चित्रण किया गया है । आवश्यक अंशका भाव इस प्रकार है, राजाकी आज्ञासे बुद्धिमान् पुरोहितने जिन भगवान्के अभिषेके लिए जल, दूध, पुष्प, फल, गन्ध, जौ, घी, सरसों, तन्दुल, लाजा, अक्षत, काले तिल, दर्भ और दही आदि सामग्री संकलित की। जल शान्तिके लिए है, दूधसे तृप्ति होती है, दहीसे कार्यकी सिद्धि होती है, तण्डुलोंसे दीर्घायु प्राप्त होती है, सरसों विघ्नों को दूर करते हैं, तिलोंसे मनुष्योंकी वृद्धि होती है, अक्षतसे नीरोगता प्राप्त होती है, जौसे अच्छा रूप मिलता है, घीसे अच्छा शरीर मिलता है, फलोंसे इस लोक और पर atest सिद्धि होती गन्ध सौभाग्यदायक हैं, पुष्पों और लाजासे सौमनस्य प्राप्त होता है । इन्द्र आदि दिशाओं में दान करनेके लिए क्रमसे सोने, चाँदी, ताँबा और कांसेके पात्र बनवाये । नदी, कूप, वापी, तालाब आदि पवित्र स्थानोंसे पानी एकत्र किया गया। दूध, दही, घी और जल वगैरहसे भरे हुए घट फूलोंके गुच्छों