________________
उपासकाध्ययन .. यहां ध्यान देनेको बात यह है कि सोमदेवने पूजनसे पूर्व जो स्थापन और सन्निधापन क्रिया बतलायी है वे आजके प्रचलित आह्वानन, स्थापन और सन्निधिकरणसे भिन्न हैं । आज तो प्रत्येक पूजनके प्रारम्भमें प्रत्येक पूज्यका आह्वानन आदि किया जाता है--आइए आइए, यहाँ विराजमान हूजिए, मेरे निकट हूजिए । किन्तु सोमदेव-द्वारा प्रदर्शित विधिमें आह्वानन तो है ही नहीं, और अभिषेकके लिए. जो जिनबिम्बको सिंहासनपर विराजमान किया जाता है वही स्थापना है। अभिषेकके पश्चात् ही जलादि पूजन प्रारम्भ हो जाता है, उसके प्रारम्भमें पुनः कोई आह्वानन आदि नहीं किया जाता। इसीसे सोमदेवकी विधिमें पूजनके अन्तमें विसर्जन भी नहीं है, क्योंकि विसर्जनका सम्बन्ध तो आह्वानन आदिके साथ है । जब किसीको बुलाया जाता है तो उसे विदा भी किया जाता है। जब बुलाया हो नहीं जाता. तो विदा करनेका प्रश्न ही नहीं रहता। ... आगे चलकर पूजाकी प्रक्रिया परिवर्तन आया । धर्मसंग्रह श्रावकाचार (वि० सं० १५१९के लगभग) और लाटी संहिता (वि०सं० १६४१) में आह्नानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन ये पांच प्रकार पूजाके बतलाये हैं । सम्भवतया आशाधर ( वि० को तेरहवीं शताब्दीका अन्त ) के पश्चात् ही उक्त प्रक्रियाने पूजामें स्थान ग्रहण किया है, क्योंकि आशाधरके काल तकके साहित्यमें ये पांच प्रकार देखने में नहीं आते।
प्रश्न यह है कि यह आह्वानन आदिको विधि जैनपरम्परामें कैसे प्रविष्ट हुई ? सोमदेव सूरिने स्थापन और सन्निधापनके पश्चात् तथा अभिषेकसे पहले विधनोंकी शान्तिके लिए इन्द्र, अग्नि, यम आदि देवताओंसे बलिग्रहण करके अपनी अपनी दिशामें स्थित होने की प्रार्थना की है; किन्तु उन्हें बुलाकर भी उनका विसर्जन नहीं किया है। देवसेनकृत भाव संग्रह, इन्द्रादि देवताओंका आह्वानन तथा उन्हें यज्ञका भाग अर्पित करके पूजनके अन्तमें उन आहूत देवोंका विसर्जन भी किया है। इस तरह जो आह्वानन और विसर्जन इन्द्रादि देवताओंके निमित्तसे किया जाता था, आगे उसे पूजाका आवश्यक अंग मानकर जिनेन्द्र देवके लिए ही किया जाने लगा। आजकल पूजनके अन्तमें विसर्जन करते हुए नीचे यह श्लोक भी पढ़ा जाता है,
"भाहता ये पुरा देवा लब्धमागा यथाक्रमन् ।
ते मयाऽभ्यचिंताः भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम् ॥" इसीको हिन्दी में इस प्रकार पढ़ा जाता है,
आये जो जो देवगण पूजे भकि समान ।
ते सब जावहु कृपा कर अपने अपने थान ॥ मुक्तात्माओंके लिए यह कितना बेतुका और हास्यास्पद है । वास्तवमें यह विसर्जन पृजनके प्रारम्भमें आहूत इन्द्रादि देवताओंके लिए है, जिनेन्द्रदेवके लिए नहीं है। संस्कृतके श्लोकमें जो 'पुरा' 'यथाक्रम लब्धभागाः' पद हैं वे इस कथनके समर्थक हैं । 'पुरा' का अर्थ है पहले अर्थात् पूजन आरम्भ करनेसे पूर्व । ऊपर लिखा जा चुका है कि सोमदेव उपासकाध्ययनमें तथा भावसंग्रहमें अभिषेकसे पहले इन्द्रादि देवताओंको
१. “जिनानाहूय संस्थाप्य सन्निधीकृत्य पूजयेत् । पुनविसर्जयेन्मन्त्रैः संहितोक्तगुरुक्रमात्॥५६॥"
-धर्मसंग्रह श्रा०, पृ० २१९ । २. "अस्त्यत्र पञ्चधा पूजा मुख्याह्वानमात्रिका । प्रतिष्ठापनसंज्ञाऽथ सन्निधिकरणं तथा ॥१७४॥ ततः
पूजनमत्रास्ति ततो नाम विसजनम् । पञ्चधेयं समाख्याता पञ्चकल्याणदायिनी ॥१७५॥"--पृ०११५ ३. उपा० श्लो० ५३८ । ४. “आवाहिऊण दवे सुरवइ सिहिकालणेरिए वरुणे । पवणे जखे ससूली सपिप सवाहणे ससत्थे य ।। दाऊण पुज्जदब्वं बलिचस्यं तह य जण्णभायं च। सम्वेसिमंतेहि य वीयवखरणामजुत्तेहि ॥४३९-४४०॥ ""झाणं झाऊण पुणो मज्झाणियवंदणथ काऊणं । उवसंहरिय विसज्जउ जे पुवावाहिया देवा ॥४८॥"--भावसं० ।