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उपासकाध्ययन
लोगोंने ही चला दिया है। प्रथम तो इसके आगेके ही पद्य में कहा है- अथवा, भगवन् आपने या आपके उपदेशका प्रचार करनेवाले गणधर आदिने पर्यायरूपसे चैत्यनिर्माण और दानका उपदेश दिया है। तीर्थंकर नाम कर्मके कारण ऐसा उपदेश देना सम्भव है । दूसरे, अर्हत्पूजाको सोलह कारण भावनाओंमें गिनाया गया है । तीसरे स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अर्हन्त देवके चरणोंकी प्रतिदिन आदरपूर्वक पूजा करनेका विधान किया है । लिखा है, इच्छित वस्तुको देनेवाले और कामविकारको जलानेवाले अर्हन्तदेव के चरणोंकी पूजा आदरपूर्वक प्रतिदिन करनी चाहिए। उससे समस्त दुःखोंका नाश होता है । अर्हन्त भगवान् के चरणोंकी पूजाका महत्त्व तो आनन्दसे उन्मत्त मेण्डकने एक फूल लेकर राजगृही नगरी में
बतलाया था ।
यह सत्य है कि इस युग में भगवान् ऋषभदेवको आहार दान देकर राजा श्रेयांसने और चंत्य चैत्यालयका निर्माण कराकर सम्राट् भरतने दान और चैत्य आदिके निर्माणकी प्रवृत्तिको जन्म दिया था और ये दोनों ही गृहस्थ थे; किन्तु यह भी सत्य है कि धर्मप्रवर्तक तीर्थंकरोंने, गणधरोंने और आचार्योंने श्रावकोंके लिए बराबर उसका विधान किया और उसे प्रोत्साहन दिया । समन्तभद्र स्वामीके उक्त पद्य इसके स्पष्ट प्रमाण हैं ।
पूजनके भेद
आचार्य जिनसेनने महापुराणके अड़तीसवें पर्वके प्रारम्भ में श्रावकके षट् कर्म इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तपका वर्णन करते हुए पूजाके चार भेद बतलाये हैं, नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूजा और अष्टापूजा। प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में अर्हन्तदेवका पूजन करना नित्यपूजा अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेवकी प्रतिमा और मन्दिरका निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदिका दान देना नित्यपूजा है । प्रतिदिन शक्तिके अनुसार नित्य दान देते हुए मुनियोंकी पूजा करना भी नित्यपूजा है । महामुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो महापूजा की जाती है उसे चतुर्मुख या सर्वतोभद्र कहते हैं । चक्रवर्तियोंके द्वारा किमिच्छिक ( मुँहमाँगा ) दानपूर्वक जगत् के सब जीवोंके मनोरथोंको पूरा करके जो पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुमपूजा कहते हैं । चौथी आष्टाह्निकपूजा है जो सर्वत्र प्रसिद्ध है । इनके सिवाय
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एक इन्द्रध्वज पूजा है । इससे पूर्वके उपलब्ध साहित्य में पूजाके भेद नहीं मिलते ।
पूजन विधि
उपलब्ध साहित्य में सोमदेव उपासकाध्ययनसे पूर्व अन्य किसी ग्रन्थमें भी इस तरह विस्तार से पूजनकी विधि मेरे देखने में नहीं आयो है । उत्तरकालके ग्रन्यकारोंमें वसुनन्दिने अपने श्रावकाचार में प्रतिष्ठाकी विधि भी बतलायी है, किन्तु पूजनकी विधि इतने विस्तारसे नहीं बतलायी । पं० आशाधरने भी दो एक पद्योंके द्वारा संक्षेप में पूजाका क्रम बतलाया है। मेधावीने भी वसुनन्दिके अनुसार लिखा है ।
१. " स्वया स्वदुपदेशकारि पुरुषेण या केनचित् कथंचिदुपदिश्यते स्म जिन ! चैत्यदानक्रिया । " २. " देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् ।
कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतो नित्यम् ||११९ ॥ अर्हचरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ १२० ॥” ३. "इयां वार्ता च दतिं च स्वाध्यायं संयमं तपः । " महापुराण, ४. “प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ २६ ॥
पर्व ३८, इलो०
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