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________________ प्रस्तावना लिए जो कुछ गोचर होता है वही परमात्मतत्त्व है । इसी बातको सोमदेवने रहस्यवादके रूपमें चित्रित करते हए लिखा है कि जब मनरूपी हंस मानसिक कार्यसे वियुक्त हो जाता है, और आत्मारूपी हंस सब तरहसे स्थिर हो जाता है तो ज्ञानरूपी हंस सबके द्वारा दृश्य सरोवरका हंस बन जाता है। ध्यान बहुत कठिन है इसीसे उसका काल एक अन्तर्मुहर्त बतलाया है, क्योंकि इससे अधिक समय तक चित्तको एक ही विषयमें एकाग्र रखना सम्भव नहीं है। किन्तु उतना अल्पकालीन निश्चय ध्यान भी कर्मरूपी पर्वतको वज्रकी तरह चूर्ण कर गलता है। सोमदेवने ध्यानका वर्णन करते हुए कुछ श्लोकोंके द्वारा ध्याताको भावनाका चित्र खींचा है। ध्याता विचारता है, "मैं परम ब्रह्म हूँ, सुखरूपो अमृतके लिए चन्द्रमा और सुखरूपी सूर्यके लिए उदयाचल हूँ; किन्तु अज्ञानान्धकारके फन्देमें फंसकर इस शरीरमें निवास करता हूँ। जब मेरा चित्त परमात्माके ध्यानसे आलोकित होगा, तब मैं प्रकाशमान सूर्यको तरह संप्तारका द्रष्टा बन जाऊंगा। इन्द्रियजन्य समस्त सुख प्रारम्भमें मधुर प्रतीत होता है, किन्तु अन्तमें कटु। यदि जन्मका अन्त मृत्यु, यौवनका अन्त बुढ़ापा, संयोगका अन्त वियोग और सुखका अन्त दुःख न होता तो कौन मनुष्य संसारको छोड़ना चाहता। मैं आज बड़ा भाग्यशाली हूँ कि सम्यग्दर्शनके तेजसे मेरा अन्तरात्मा विशुद्ध होकर अन्धकारके पार पहुँच गया है । मैंने इस संसारमें कौन-सा सुख और दुःख नहीं भोगा; किन्तु जिनवाणीरूपी अमृतका पान कभी नहीं किया। इस अमतसागरकी एक बूंदको भी चाट लेनेसे जीवको फिर जन्मरूपी आगमें कभी भी जलना नहीं पड़ता। ज्ञानार्णवमें संस्थानविचय नामक धर्मध्यानके अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानका वर्णन है । तत्त्वानुशासनमें भी धर्मध्यानके अन्तर्गत इन चारों ध्यानोंका वर्णन है, किन्तु उनके पिण्डस्थ आदि नाम नहीं हैं। सोमदेवने आर्त आदि चारों ध्यानोंका वर्णन करनेके पश्चात रूपस्थ और पदस्थ ध्यानोंका वर्णन किया है, पर दोनों नाम नहीं दिये हैं और उसके पश्चात् लिखा है कि लोकोत्तर ध्यानका कथन किया अब कुछ लौकिक ध्यानका कथन करते हैं । इसमें उन्होंने सर्वप्रथम 'ओं का ध्यान करना बतलाया है और उसके लिए प्राणायामकी साधनाकी आवश्यकता बतलायी है । इसका वर्णन ज्ञानार्णवके उनतीसवें अधिकारमें विशेष रूपसे आया है। ध्यानके प्रकरणके अन्तमें सोमदेवमे पद्मासन, वीरासन और सुखासनका लक्षण भी बतलाया है। मूर्तिपूजन सोमदेवके मूर्तिपूजनके सम्बन्धमें जो जानकारी और सामग्री उपासकाध्ययनमें प्रस्तुत की है उसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमिपर जांचने-देखनेसे अनेक नये तथ्य सामने आते हैं। सोमदेवसे पूर्व किसी ग्रन्थमें पूजा तथा पूजा-विधिका इतना विस्तृत और स्पष्ट विवरण दिखायी नहीं पड़ता। ___ आचार्य कुन्दकुन्दने अपने पंचास्तिकायमें ( गा० १६६ ) अरिहन्त, सिद्ध, चैत्य और प्रवचन भक्तिका निर्देश किया है, तथा प्रवचनसार ( गा०१-६९ )में देवता, यति और गुरुकी पूजाका निर्देश किया है। दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्वके खारवेलके शिलालेखमें अग्रजिनकी मूर्तिका उल्लेख है, जिसे राजा नन्द कलिंग जीतनेपर पाटलिपुत्र ले गया था और जिसे खारवेलने मगधपर चढ़ाई करके पुनः प्राप्त किया था। एक मौर्यकालीन जैन मूर्ति पटनाके म्यूजियममें स्थित है । इसी प्रकारको मूर्तिका कबन्ध हड़प्पासे प्राप्त हुआ है, जिसका समय ईस्वी सन्से २४००-२००० वर्ष पूर्व अनुमान किया गया है और जिसे भारतीय पुरातत्त्व विभागके तत्कालीन संयुक्त १. "सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना । यत् क्षणं पश्यतो माति तत्तत्त्वं परमात्मनः ॥" २. उपा० श्लो० ६२५। ३. उपा० श्लो. ६६६-६७४ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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