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प्रस्तावना
३३ पार्वतीकी प्रतिरूप स्त्रीके साथ आनन्द करता है। कापालिकोंके इस सिद्धान्तको प्रबोधचन्द्रोदयमें महाभैरवानुशासन, परमेश्वरसिद्धान्त आदि नामोंसे कहा है।
__ एक स्थानपर नाटकमें कापालिकको कुलाचार्य भी कहा है । इससे प्रकट होता है कि यद्यपि कापालिकों और कोलोंका मत जुदा-जुदा था.तथापि उनके आचारमें समानता होनेसे कभी-कभी दोनोंको एक समझ लिया जाता था। दोनों ही आपत्तियोग्य आचारको पालते थे किन्तु कापालिक नरमेध भी करते थे।
आर० जी० भण्डारकरने लिखा है कि पुलकेशी द्वितीयके भतीजे नागवर्धनका एक ताम्रपत्र मिला है जिसमें कपालेश्वरको पूजाके लिए और मन्दिरमें रहनेवाले महाव्रतियोंके लिए नासिक जिलेके अन्तर्गत इगतपुरीके पासका एक गाँव दान देनेका उल्लेख है। इससे प्रकट है कि सातवीं शताब्दीके मध्यके लगभग महाराष्ट्रमें कापालिक सम्प्रदाय वर्तमान था। कवि भवभूतिके मालतीमाधव नाटकके प्रथम अंकसे प्रकट होता है कि उसके समयमें (आठवीं शताब्दी) कर्नूल जिलेका श्रीपर्वत कापालिकोंका केन्द्र था। वीर पाण्डयके समकालीन विक्रमकेशरीके एक दानपत्रमें मदुराके मल्लिकार्जुनको, जो कालमुख सम्प्रदायका साधु था, एक बड़ा मठ देनेका उल्लेख है। कालमुख भी कापालिकोंके हो भाईबन्द थे। त्रिविक्रम भट्टके नल चम्पमें, जो दसवीं शताब्दीके प्रारम्भको रचना है, कालमुखोंको महाव्रतिकों अथवा कापालिकोंके अन्तर्गत बतलाया है। सांख्य दर्शन
सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनके प्रारम्भमें मोक्षके सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकोंके मत उद्धृत करते हए सांख्य दर्शनका भी मत दिया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि प्रकृति और पुरुषके भेदज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति सांख्य दर्शनमें बतलायी है। आगे लिखा है कि बुद्धि, मन, अहंकारका अभाव होनेसे समस्त इन्द्रियोंके शान्त हो जानेसे द्रष्टाका अपने स्वरूपमें अवस्थित होना मोक्ष है।
सांख्यकी मोक्षविषयक उक्त मान्यताओंका सोमदेवने खण्डन किया है। सांख्य दर्शनमें मूल तत्त्व दो हैं, प्रकृति और पुरुष । प्रकृतिसे महान्, महान्से अहंकार, अहंकारसे पाँच तन्मात्राएं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन, तथा पांच तन्मात्राओंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच भूत उत्पन्न होते हैं। इस तरह प्रकृतिके साथ उसके परिवारकी संख्या चौबीस हो जाती है और एक पुरुष मिलकर कुल संख्या पचीस हो जाती है। सांख्य दर्शनमें पुरुषको अकर्ता नित्य, व्यापक, निष्क्रिय, अमूर्त, भोक्ता और चेतन माना है। अतः सोमदेवने सांख्यकी आलोचना करते हुए लिखा है कि जब प्रकृति और पुरुष दोनों ही नित्य और व्यापी हैं तब उनमें भेद कैसे किया जा सकता है। - सांख्य मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानता, केवल चैतन्य मानता है। अतः सोमदेव कहते हैं कि आत्मा तो स्वाभाविक अनन्त ज्ञानका भण्डार है। कर्ममलके नष्ट हो जानेपर वह केवल ज्ञानके द्वारा बाह्य पदार्थोंको जानता हुआ ही अपने स्वरूपमें स्थित रहता है ।""आदि ।
सोमदेवने यशस्तिलकके पांचवें आश्वासमें भी (पृ० २५० ) सांख्य मतका चित्रण किया है। उसमें एक श्लोक भी दिया है जिसका भाव यह है कि यतः मोक्ष तो प्रकृति और पुरुषके भेदज्ञानसे होता है अतः धार्मिक क्रियाएं करना व्यर्थ है । इसलिए व्यक्तिको खाना पीना और मौज करना चाहिए ।
एक विद्वान् पाठकको सांख्यदर्शनके सम्बन्धमें ऐसा कथन उपहासास्पद प्रतीत हो सकता है किन्तु सांख्यकास्किाकी टीका माठरवृत्ति में एक श्लोक बिलकुल इसो आशयका पाया जाता है । श्लोक इस प्रकार है,
"हस पिब लल मोद नित्यं विषयानुपभुज कुरु च मा शाम्। यदि विदितं ते. कपिलमतं तत्प्राप्स्यसे मोक्षसौख्यं च॥"
१. वैष्णविज्म, शैविज्म (पृ० १६८)। २. "कलियुगशिवशासनस्थितिमिव महाव्रतिकान्तःपातिमिः कालमुखैर्वानरैः" -नलचम्पू म०६।