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________________ -९०५] उपासकाध्ययन ३२५ जीवितमरणाशंसे सुहदनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिदाना स्युः सल्लेखनहानये पञ्च ॥१०॥ प्राराध्य रत्नत्रयमित्थमर्थी समर्पितात्मा गणिने यथावत् । समाधिभावेन कृतात्मकार्यः कृती जगन्मान्यपदप्रभुः स्यात् ॥६०४।। इत्युपासकाध्ययने सल्लेखनाविधिर्नाम पञ्चचत्वारिंशः कल्पः ॥४५॥ अथ प्रकोणकम् विप्रकीर्णार्थवाक्यानामुक्तिरुक्तं प्रकीर्णकम् । उक्तानुक्तामृतस्यन्दबिन्दुस्वादनकोविदः ॥१०॥ आचार्य जो प्रायश्चित्त बतलायें उसे करक समाधिमरण करनेके लिए पूरब या उत्तरको सिर करके शान्तिके साथ चटाईपर विराजमान हो जाये। और यदि वह महाव्रत धारण करनेकी प्रार्थना करे तो आचार्य उसे समस्त परिग्रहका त्याग कराकर महाव्रत धारण करा दे । इसके बाद वह नम्न होकर महाव्रत अङ्गीकार करके महाव्रतकी भावना भाये और जो महाव्रत धारण न कर सकता हो तो वह बिना ही महाव्रत अङ्गीकार किये महाव्रतकी भावना भाये । संघमें जो श्रेष्ठ मुनि हों उन्हें उसकी सेवामें देकर आचार्य उसे सम्बोधते रहें । पहले उससे यह मालूम करें कि तुम्हारी कुछ खानेकी इच्छा है क्या ! यदि वह कुछ खाना चाहे तो उसे खिला दें, जिससे उसका मन किसी खाद्यमें उलझा न रहे । और यदि वह उसीमें आसक्त हो तो उसे समझाकर उसका मन उधरसे हटाये । इस तरह उससे भोजनका त्याग कराकर दुग्ध वगैरह देते रहें । फिर धीरे-धीरे भोजन भी छुड़ाकर गर्म जल देते रहें । उसके बाद जब आचार्य आज्ञा दें, तो वह जीवन-भरके लिए सब प्रकारका आहार छोड़ दे । यदि उसे कोई ऐसा रोग हो जिसके कारण उसे बार-बार प्यास लगती हो तो पानी रख सकता है और जब मृत्यु निकट मालूम दे तब उसे छोड़ सकता है । समाधिमरणके अतीचार जीनेकी इच्छा करना, मरनेकी इच्छा करना, मित्रोंको याद करना, पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना और आगामी भोगोंकी इच्छा करना, ये पाँच बातें समाधिमरणव्रतमें दोष लगानेवाली हैं ।।९०३॥ इस प्रकार आचार्यके ऊपर विधिवत् अपना भार सौंपकर तथा रत्नत्रयकी आराधना कर जो समाधिमरण करता है वह संसारमें पूजनीय पदका स्वामी होता है ।।९०४॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें सल्लेखनाविधि नामक पैंतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। [अब कुछ फुटकर बातें बतलाते हैं।] उक्त-जिन्हें कह चुके और अनुक्त-जिन्हें नहीं कहा, उन सब विषयरूपी अमृतसे टपकनेवाली बूंदोंका स्वाद लेनेमें चतुर पण्डितजनोंने फुटकर बातोंका कथन करनेको प्रकीर्णक कहा है ॥ ९०५॥ १. यदि स्तोकं कालं जीव्यते तदा भव्यमिति जीविताशंसा। यदि शीघ्रं म्रियते तदा भव्यमिति मरणाशंसा । आशंसा वाञ्छा। "जीवितमरणाशंसा मित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥" तत्त्वार्थसूत्र ७-३७ । "जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मतिनिदाननामानः । सल्लेखनातीचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिष्टाः ॥१२९।।"रत्नकरंडश्रा० । "जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च । सनिदानः पञ्चैते भवन्ति सल्लेखनाकाले ॥१९५॥"-पुरुषार्थसि० । अमित० श्राव० ७-१५ सागारधर्मा० ८।४५ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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