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________________ -८६८ ] उपासकाध्ययन यमदूतीव जरा यदि समागता जीवितेषु कस्तेर्षः ॥ ८६४ ॥ कर्णान्तकेशपाशग्रहणविधेर्बोधितोऽपि यदि जरया । स्वस्य हितैषी न भवति तं किं मृत्युर्न संग्रसते ॥८५॥ उपवासादिभिरङ्गे कषायदोषे च बोधिभावनया । कृत सल्लेखन कर्मा प्रायाय यतेत गणमध्ये ||८६६॥ यमनियम स्वाध्यायास्तपांसि देवार्चनाविधिर्दानम् । एतत्सर्वं निष्फलमवसाने चेन्मनो मलिनम् ॥ ८६७॥ द्वादशवर्षाणि नृपः शिक्षितशस्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् । किं स्यात्तस्यास्त्रविधेर्यथा तथान्ते यतेः पुराचरितम् ||८६८|| ३२३ यमके दूतकी तरह आकर खड़ा हो गया तो फिर जीने की क्या लालसा ? || ८६४ ॥ बुढ़ापे के द्वारा कान के समीपके बालोंको पकड़कर समझाये जानेपर भी अर्थात् बुढ़ापेके चिह्नस्वरूप कानके पास के बालोंके सफेद हो जानेपर भी जो अपने हित में नहीं लगता है। क्या उसे मौत नहीं खाती ? || ८६५ ॥ भावार्थ - --आशय यह है कि बुढ़ापा आ जानेपर जीवनमें कोई ऐसा रस नहीं रहता जिसके लिए मनुष्य जीने की इच्छा करे । अतः बुढ़ापा आनेपर आत्म-कल्याण में लगना ही हितकर है; क्योंकि उसके बाद मौत के मुँह में जाना सुनिश्चित है । समाधिमरणकी विधि जो समाधिमरण करना चाहता है, उसे उपवास वगैरह के द्वारा शरीरको और ज्ञानभावनाके द्वारा कषायों को कृश करके किसी मुनिसंघमें चला जाना चाहिए ।। ८९६ ॥ भावार्थ-समाधिमरणको सल्लेखना व्रत कहते हैं । सल्लेखना का अर्थ है योग्य रीति से शरीर और कषायोंका कृश करना। यदि शरीर मलसे भरा हो और मनमें कुटुम्बवालों का मोह समाया हो तो समाधिमरण हो नहीं सकता । अतः शरीर और आत्मा दोनोंको शुद्ध करके समाधिमरण करना चाहिए और उनके लिए घरवालों के फन्दे से निकलकर त्यागी जनों में चले जाना चाहिए । t यदि मरते समय मन मैला रहा तो जीवन-भरका यम, नियम, स्वाध्याय, तप, देवपूजा और दान निष्फल है || ८९७ || जैसे एक राजाने बारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा । जब युद्धका अवसर आया तो वह शस्त्र नहीं चला सका । उस राजाकी शस्त्रशिक्षा किस कामकी, वैसे ही जो व्रती जीवन-भर धर्माचरण करता रहा, किन्तु जब अन्त समय आया तो मोहमें पड़ गया। उस व्रतीका पूर्वाचरण किस कामका || ८६८ ॥ १. का तृष्णा । २. " उपवासादिभिः कार्य कषायं च श्रुतामृतैः । संल्लिख्य गणिमध्ये स्यात् समाधिमरणोद्यमी ॥ " - सागारधर्मा० ८-१५ । ३. -चर्नादिवि-धर्मरत्ना० प० १३३ । ४. किं तस्य शस्त्रवि धिना - धर्मरत्ना० प० १३३ । " नृपस्येव यतेर्धर्मो चिरमभ्यस्तिनोऽस्त्रवत् । युधीव स्खलितो मृत्यो स्वार्थभ्रंशोऽयशः कटु ।।१७।। "-- सागारधर्मा० अ० ८ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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