________________
प्रस्तावना
२३
विक्रमकी १५वीं शती में रचित दानशासन ग्रन्थ में भी सोमदेवके उपासकाध्ययनके अनेक श्लोकोंका अनुकरण किया गया है। इस तरह उत्तरकालीन श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य सोमदेवके उपासकाध्ययनसे प्रभावित है । और उसके उद्धरण तो ज्ञानार्णव में, परमात्म प्रकाश और बृहद्वै व्यसंग्रहको टीकाओंमें, अनन्तवीर्यकी प्रमेयरत्नमाला", रत्नकरण्डकी प्रभाचन्द कृत टीकामें तथा श्रुतसागरकी षट् प्राभृत टीकामें पाये जाते हैं । इन्द्रनन्दिने अपने नीतिसार में उन जैनाचार्योंका नामोल्लेख किया है जिनके ग्रन्थोंको उन्होंने प्रमाण माननेको सम्मति दी है । उनमें अन्य महान् जैनाचार्योंके साथ सोमदेवका भी नाम है । अत: सोमदेव और उनके उपासकाध्ययनका महत्त्व उक्त विवरणसे स्पष्ट है ।
सोमदेव के उपासकाध्ययनको उनके पश्चात् हुए ग्रन्थकारोंके द्वारा इतना अपनाया जानेके कई कारण हो सकते हैं, सबसे प्रथम कारण तो हमें यह प्रतीत होता है कि उस समयतक श्रावकाचारोंकी रचनाका विशेष प्रचलन नहीं था और कई दृष्टियोंसे उस दिशामें यह एक अभिनव प्रयोग था । यद्यपि उनसे पहले समन्तभद्रका रत्नकरण्ड श्रावकाचार रचा जा चुका था और वह उनके सामने न केवल वर्तमान था, किन्तु सम्भव है उसीसे उन्हें उपासकाध्ययन के रचनेकी प्रेरणा तथा रूपरेखा प्राप्त हुई हो। जिनसेनने अपने महापुराणके पर्व ३८-३९ में श्रावकोंकी जिन प्रभावित थे। तीसरे तत्कालीन स्थिति । इन सबकी सम्मिलित उसमें सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण और बारह व्रतोंके अतिरिक्त ऐसे ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें कही गयीं जो मध्यकालके श्रावकोंके लिए अति उपयोगी थीं और आज भी हैं ।
इसके सिवा आचार्य क्रियाओं का वर्णन किया था उससे भी वह प्रेरणावश ही उपासकाध्ययन रचा गया और अनेक विषय सम्मिलित किये गये और अनेक
साधारणतया सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा और सल्लेखना ये हो श्रावकधर्म हैं । रत्नकरण्डमें इन्हीं सबका वर्णन १५० श्लोकोंमें है । पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें भी प्रतिमाओंके सिवाय शेषका वर्णन है । उपासकाध्ययनमें भी प्रायः इन्हीं सबका वर्णन है, किन्तु इसमें जो अनेक मौलिक विशेषताएँ हैं, उन्होंके कारण सोमदेव और उनके उपासकाध्ययनको इतना समादर प्राप्त हुआ ।
[ ५ ] उपासकाध्ययनपर प्रभाव
समन्तभद्र और सोमदेव - सोमदेवके उपासकाध्ययनपर सबसे अधिक प्रभाव आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारका है। उसीके अनुसार उसमें आप्त, आगम आदिके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाकर क्रमसे आप्त आगम आदिका विस्तारसे कथन किया है । साधारणतया सम्यग्दर्शन, अष्टमूल गुण, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ और समाधिमरण, ये श्रावक धर्म हैं । रत्नकरण्डके १५० पद्योंमें इन्हीं सबका
१. प्रबोधसार और दानशासन सखाराम नेमचन्द प्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुए 1
२. रायचन्द शास्त्रमाला बम्बई से प्रकाशित, पृ० ७५ तथा पृ० ९३ पर ।
३. रा० शा० बम्बई से प्रकाशित दूसरा संस्करण । पृ० १४३ पर |
४. दिल्लीले प्रकाशित संस्करण, पृ० १५९ पर ।
५. बनारस से प्रकाशित संस्करण, पृ० १८ ।
६. मा० प्र० संस्करण, पृ० ८० में ।
७. मा० प्र० संस्करण, पृ० ८५, ९०, १०२, २९४, ३०२, ३४५ प्रति ।
८. श्री मद्रबाहुः श्रीचन्द्रो जिनचन्द्रो महामतिः । गृदपिच्छगुरुः श्रीमान् लोहाचार्यो जितेन्द्रियः || एलाचार्यः पूज्यपादः सिंहनन्दो महाकविः । वीरसेनो जिनसेनो गुणनन्दी महातपाः ॥ समन्तभद्रः श्रीकुम्भः शिवकोटिः शिवंकरः । शिवायनो विष्णुसेनो गुणभद्रो गुणाधिकः ॥ अकलंको महाप्राज्ञः सोमदेवो विदांवरः । प्रभाचन्द्रो नेमिचन्द्र इत्यादि मुनिसत्तमैः । यच्छास्नं रचितं नूनं तदेवादेयमन्यकैः । विसन्धे रचितं नैव प्रमाणं साध्वपि स्फुटम् ॥