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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो०७Rभवेष समगुल्फाभ्यां पावोरसुखासनम् ।।७३२॥ तत्र सुखासनस्येदं लक्षणम्
गुल्फोतानकराडरेतारोमालिनासिकाः। समष्टिः समाः कुर्याातिस्तब्धो न वामनः ॥७३॥ तालत्रिभागमभ्याति: स्थिरशीर्षशिरोधरः।। समनिम्पन्दपायॆप्रजानुभ्रूहस्तलोचनः ।।७३४॥ न सास्कृतिन कइति ष्टभक्तिर्न कम्पितिः। न पर्वपणितिः कार्या नोक्तिरन्दोलितिः स्मितिः ॥७३॥ न कुर्या रहस्यातं नैव "केकरवीक्षणम् । न स्पन्दं परममालानां तिष्ठेवासाप्रदर्शनः ॥७३६|| विक्षपापसंमोहदरीहरहिते इदि।
लब्धतत्वे करस्थोऽयमशेषो ध्यानजो विधिः ॥७३७।। इत्युपासकाध्ययने ध्यानविधिर्नामैकोनचत्वारिशः कल्पः ।
सन कहते हैं। जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनोंके ऊपरके हिस्सेपर रखकर बैठा जाता है अर्थात् बायीं ऊरूके ऊपर बाँया पैर और दायीं उसके ऊपर दाँया पैर रखा जाता है उसे वीरासन कहते हैं । और जिसमें पैरोंकी गाँठे बराबरमें रहती हैं उसे सुखासन कहते हैं ।। ७३२ ॥
भावार्थ-उत्तर भारतमें बैठी हुई जिनविम्बोंमें जो भासन पाया जाता है वही पद्मासन है; क्योंकि उसमें दोनों पैर घुटनोंसे नीचे पिडलियोंके ऊपर रहते हैं । यदि दोनों पैर दोनों घुटनोंसे ऊपरके भागपर रखे हों तो उसे वीरासन समझना चाहिए । वीरासनसे पद्मासन सरल है क्योंकि जांघोंके ऊपर पैर होनेसे खिंचाव कम पड़ता है । और पद्मासनसे भी सरल सुखासन है क्योंकि उसमें पैरके ऊपर पैर रहता है। इसलिए खिंचाव बिलकुल नहीं पड़ता। इसीसे इसका नाम सुखासन रखा गया है । गृहस्थों को ध्यान करते समय इसी सुखासनसे बैठना चाहिए। इसीसे आगे सुखासनका स्वरूप बतलाते हैं।
पैरोंकी गाठोंपर वायी हथेलीके ऊपर दायीं हथेलीको सीधा रखे । अगूठोंकी रेखा, नामिसे निकलकर ऊपरको जानेवाली रोमावली और नाक एक सीधमें हों। दृष्टि सम हो । शरीर न एकदम तना हुआ हो और न एकदम झुका हुआ हो। खड्गासन अबस्थामें दोनों चरणोंके बीचमें चार अंगुलका अन्तर होना चाहिए । सिर और गर्दन स्थिर हों। एड़ी, घुटने, भ्रुकुटि, हाथ और आँखें समान रूपसे निश्चल हों। न खांसे, न खुजाये । न ओठ चलाये, न काँपे, न हाथके पर्वोपर गिनें, न बोले, न हिले-डुले, न मुसकराये, न दृष्टिको दूर तक ले जाये और न कटाक्षसे ही देखे । आँखके पलकोंको न मारे और नाकके अग्रभागमें अपनी दृष्टिको स्थिर रखे। हृदयमें चंचलता, तिरस्कार, मोह और दुर्भावनाके न होनेपर तथा तत्त्वज्ञानके होनेपर यह समस्त ध्यानकी विधि करमें स्थित अर्थात् सुलम है ॥ ७३३-७३७ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें ध्यान विधि नामक उनतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
१. वितस्तेस्तृतीयभागश्चतुरङ्गुलः । २. प्रोवा । ३. खर्जनम् । ४. कम्पनम् । ५. कटाक्ष ।