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प्रस्तावना
न पुरुषार्थसिद्धघपायपर सोमदेवके उपासकाध्ययनकी कोई छाया है। अतः यही प्रतीत होता है कि इन दोनों में से किसी एकने दूसरेको कृतिको नहीं देखा था। फिर भी यदि पुरुषार्थसिद्धयुपायसे सोमदेवके उपासकाध्ययनको तुलना की जाये तो दोनोंका अपना-अपना वैशिष्ट्य स्पष्ट रूपसे प्रतीत होता है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय अपने नामके अनुसार मोक्ष पुरुषार्थकी प्राप्तिका उपाय बतलानेकी दृष्टिसे रचा गया है। किन्तु सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें जो कुछ लिखा है वह उपासकका अध्ययन करके लिखा है। आधुनिक शैलीमें उसे 'उपासक-एक अध्ययन' नाम दिया जा सकता है या इस रूपमें उसके उपासकाध्ययन नामकी व्याख्या की जा सकती है। अमृतचन्द्रका उपासक मुमक्ष है-अन्तरंगसे भी और बहिरंगसे भी, किन्तु सोमदेवका उपासक अन्तरंगसे मुमुक्षु होते हुए भी बहिरंगसे संसारी है। उसकी कमजोरियोंके प्रति सोमदेवमें करुणावुद्धि है । साथ ही अमृतचन्द्रकी दृष्टि जब केवल अपने मुमुक्षु जनोंपर केन्द्रित है तब सोमदेव संसारी गृहस्थोंकी समाजपर दृष्टि रखे हुए है-जिस समाजमें सभी तरहके जन सम्मिलित है। तभी तो वह अन्तमें कहते हैं, "जिन भगवान्का यह धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे भरा है। जैसे मकान एक स्तम्भपर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक पुरुषके आश्रयसे नहीं ठहर सकता।"
अमतचन्द्र आध्यात्मिक थे किन्तु सोमदेव आध्यात्मिकसे अधिक व्यवहारी थे। इसीसे उनके उपासकाध्ययनमें व्यवहार धर्मका सांगोपांग निरूपण मिलता है।
सोमदेवके उपासकाध्ययनके पश्चात् जो श्रावकाचार रचे गये उनपर उपासकाध्ययनका ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं ।
सोमदेव और जयसेन-आचार्य जयसेनने उपासकाध्ययनको रचनाके ३९ वर्ष पश्चात् ही वि० सं० १०५५ में अपना धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ रचकर पूर्ण किया था। उसमें उपासकाध्ययनके श्लोकोंके उद्धरण बहुतायतसे पाये जाते हैं। उप सकाध्ययनके टिप्पणमें ऐसे उद्धरणोंका यथास्थान निर्देश किया गया है।
सोमदेव और अमितगति-आचार्य अमितगतिने विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में अपना उपासकाचार रचा था। उसपर सोमदेवका स्पष्ट प्रभाव है। प्रमाणके लिए दोनोंसे एक-एक श्लोक नीचे दिया जाता है,
"देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधिमयाय वा। न हिंस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तद्वतम्" ॥३२०॥ सो. उ. ।
"देवतातिथिमन्त्रौषधपित्रादि निमित्ततोऽपि सम्पन्ना । . हिंसा धत्ते नरकं किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥२९॥" ६ श्रा., अमि० उ.। उपासकाध्ययनके प्रारम्भमें सोमदेवने दर्शनान्तरोंकी समीक्षा की है। अमितगतिने भी अपने उपासकाचारके चतुर्थ परिच्छेदमें दर्शनान्तरोंकी समीक्षा की है। सोमदेवने पूजाविधि और ध्यानका बहुत विस्तारसे कथन किया है। अमितगतिने भी १२वें परिच्छेदमें पूजाविधिका और १५वें में ध्यानका कथन किया है। उपासकाचार नाम भी उपासकाध्ययनकी ही अनुकृति प्रतीत होता है।
सोमदेव और पद्मनन्दि-(वि० को १२वीं शताब्दीके लगभग)-प्राचीन समयमें श्रावकों और मुनियोंके षट् आवश्यक सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग थे। आचार्य जिनसेनने (महापुराण ३८।२४ में) इज्या, वार्ता, दान, तप, संयम, स्वाध्यायको श्रावकके षट्कर्म बतलाया था। उसमें किंचित् संशोधन करके सोमदेवने श्लोक सं० ९११ के द्वारा देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और
१. यह उपासकाचार अनन्तर्कीर्तिग्रन्थमाला बम्बईसे और फिर सूरतसे प्रकाशित हुआ है। पद्मनन्दि
पञ्चविंशतिकाका नया संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित हुआ है।