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________________ २६० सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६३७ज्योतिबिन्दुः कलानादः कुण्डलीवायुसंचरः। मुद्रामण्डलचोपानि निर्बीजीकरणादिकम् ।।६३७।। नाभौ नेत्रे ललाटेच ब्रह्मग्रन्थौ च तालुनि ।। अग्निमध्ये रेवी चन्द्र लूतातन्तौ हदगुरे ॥६३८।। मृत्युञ्जयं यदन्तेषु तत्तत्त्वं किल मुक्तये। अहो मूढधियामेष नयः स्वपरवञ्चनः॥६३६॥ परमात्माको सब ज्योतियोंका ज्योतिस्वरूप जानकर उनके ज्योतिर्मय रूपकी कल्पना करके ध्यानका अभ्यास करनेकी व्यवस्था हठयोगमें है। तन्त्रमतमें शिव, शक्ति और बिन्दु ये तीन रत्न माने गये हैं । शुद्ध जगत्का उपादान बिन्दु है। बिन्दुका ही दूसरा नाम महामाया है। बिन्दु क्षुब्ध होकर जिस प्रकार एक ओर शुद्ध देह, इन्द्रिय, भोग और भुवनके रूपमें परिणत 'होता है उसी प्रकार यही शब्दकी भी उत्पत्ति करता है । शब्द सूक्ष्म नाद, अक्षर-विन्दु और वर्ण भेदसे तीन प्रकारका है । निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति तथा शान्त्यतीत, ये कलाएँ बिन्दुकी ही पृथक-पृथक् अवस्था हैं । शान्त्यतीत रूप या परबिन्दु समस्त कलाओंकी कारणावस्था या लयावस्था है । लययोगके ध्यानका नाम विन्दुध्यान है । तान्त्रिक मतमें षट्चक्रोंका अभ्यास हुए बिना आत्मज्ञान नहीं होता । इडा और पिंगला नामक दो नाड़ियोंके मध्यमें जो सुषुम्ना नाड़ी है उसकी छह ग्रन्थियोंमें पद्मके आकारके छह चक्र संलग्न हैं । गुह्यस्थानमें, लिंगमूलमें, नाभिदेशमें, हृदयमें, कण्ठमें और दोनों भ्रके बीचमें-इन छह स्थानोंमें छह चक्र विद्यमान हैं। ये छह चक्र सुषुम्ना नामकी छह ग्रन्थियोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं। इन छह ग्रन्थियोंका भेदन करके जीवात्माका परमात्माके साथ संयोग किया जाता है । मनुष्य शरीरमें तीन लाख पचास हजार नाड़ियाँ हैं । उन सबमें सुषुम्ना नाड़ी प्रधान है। अन्य समस्त नाड़ियाँ इसी सुषुम्ना नाड़ीके आश्रयसे रहती हैं । इस सुषुम्ना नाड़ीके मध्यगत चित्रानाड़ीके मध्य सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर ब्रह्मरन्ध्र है। कुण्डलिनी शक्ति इसी ब्रह्मरन्ध्रके द्वारा मूलाधारसे सहस्रारमें गमन करती है । इसीसे इस ब्रह्म रन्ध्रको दिव्यमार्ग कहते हैं। इडा नाडी वाम भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाड़ीको प्रत्येक चक्रमें घेरती हुई दक्षिण नासापुटसे और पिगंला नाड़ी दक्षिण भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाड़ीको प्रत्येक चक्रमें परिवेष्टित करके वायें नासापुटसे आज्ञाचक्रमें मिलती है । इडा और पिंगला के बीच-बीचमें सुषुम्ना नाड़ीके छह स्थानोंमें छह शक्तियाँ और छह पद्म निहित हैं। कुण्डलिनीने कुण्डलित होकर सुषुम्ना नाडीके समस्त अंशको घेर रखा है। तथा अपने मुखमें अपनी पूँछको डालकर साढे तीन घेरे दिये हुए स्वयंभू लिंगको वेष्ठन करके ब्रह्मद्वारका अवरोध कर सुषुम्नाके मार्गमें स्थित है। यह कुण्डलिनी सर्पका-सा आकार धारण करके जहाँ निद्रा ले रही है, उसी स्थानको मूलाधार चक्र कहते हैं । मूलाधार चक्रके ऊपर लिंगमूलमें षड्दल विशिष्ट स्वाधिष्ठान नामक चक्र है। स्वाधिष्ठान चक्रके ऊपर नाभिमूलमें मणिपूर नामक दशदलपद्म है । जो योगी इस चक्रमें ध्यान करते हैं .. १. दक्षिणनाडयां । २. वामनाडयाम् । 'अग्रे वामविभागे चन्द्र क्षेत्रं वदन्ति तत्त्वविदः । पृष्ठो च दक्षिणाले रवेस्तदाहराचार्याः ॥७०।-ज्ञानार्णव पृ. २९७. । ३. यदा मरणवेला वर्तते तदा निर्बीजीकरणं क्रियते । तेन कर्मणा मृत्यौ वञ्चिते सति पश्चात् कदापि मरणं न स्यादित्यर्थः । .
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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