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________________ २५७ -६२८ ] उपासकाम्ययन निर्मनस्के' मनोहसे हंसे सर्वतः स्थिरे । बोधहंसोऽखिलालोक्यसरोहंसः प्रजायते ॥२५॥ यद्यप्यस्मिन्मनःक्षेत्रे क्रियां तां तां समादधत् । कंचिद्वेदयते भावं तथाप्यत्र न विभ्रमेत् ॥६२६॥ "विपक्ष क्लेशराशीनां यस्माष विधिर्मतः । तस्मान विस्मयेतास्मिन् परब्रह्म समाश्रितः ॥६२७॥ प्रभावैश्वयविज्ञानदेवतासंगमादयः। योगोन्मेषाद्भवन्तोऽपि नामी तत्त्वविदां मुदे ॥६२८॥ भूमौ जन्मेति रत्नानां यथा सर्वत्र नोद्भवः। के द्वारा पारा सिद्ध हो जाता है उसी तरह यदि यह बात्मज्ञानमें स्थिर होकर सिद्ध हो जाये तो इसके सिद्ध होनेसे तीनों लोकोंमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सिद्ध यानी प्राप्त न हो ॥६२४-६२५।। भावार्थ-पारा स्वभावसे ही चंचल होता है, किन्तु यदि आगमें आँच देकर विधिपूर्वक उसे सिद्ध कर लिया जाये तो उसके सिद्ध होनेसे अनेक रससिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । वैसे ही चञ्चल मन यदि आत्मस्वरूपमें स्थिर हो जाये तो फिर ऐसी कौन-सी सिद्धि है जो प्राप्त नहीं हो सकती । अतः मनको स्थिर करना आवश्यक है। ___ यदि यह मनरूपी हंस अपना व्यापार छोड़ दे और आत्मारूपी हंस सर्वथा स्थिर हो जाये तो ज्ञानरूपी हंस इस समस्त ज्ञेयरूपी सरोवरका हंस बन जाये अर्थात् मन निश्चल होनेके साथ यदि आत्मा, आत्मामें सर्वथा स्थिर हो जाये तो विश्वको जाननेवाला केवलज्ञान प्रकट होता है ॥६२५॥ यद्यपि इस मनरूपी क्षेत्रमें अनेक क्रियाओंको करता हुआ मुनि किसी पदार्थको जान लेता है, फिर भी उसमें धोखा नहीं खाना चाहिए। क्योंकि विपक्षमें नाना क्लेशोंके रहते हुए ऐसा करना उचित नहीं है । अतः परब्रह्म परमात्मस्वरूपका जाश्रय लेनेवालेको इस विषयमें अचरज नहीं करना चाहिए ॥६२६-६२७॥ भावार्थ-आशय यह है कि मनोनिग्रह करनेसे यदि कोई छोटी-मोटी ऋद्धि या ज्ञान प्राप्त हो जाये तो मोक्षार्थी ध्यानीको उसीमें नहीं रम जाना चाहिए क्योंकि उसका उद्देश्य इससे बहुत ऊँचा है। वह तो संसारके दुःखोंका समल नाश करके परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए योगी बना है, अतः उसे प्राप्त किये बिना उसे विश्राम नहीं लेना चाहिए और मामूली लौकिक ऋद्धिसिद्धिके चक्करमें नहीं पड़ जाना चाहिए। क्योंकि उसके प्राप्त हो जानेपर भी अनन्त क्लेश राशिसे छुटकारा नहीं हो सकता । यही आगे स्पष्ट करते हैं-- ध्यानका प्रादुर्भाव होनेसे प्रभाव, ऐश्वर्य, विशिष्ट ज्ञान और देवताका दर्शन आदिकी प्राप्ति होनेपर भी तत्त्वज्ञानी इनसे प्रसन्न नहीं होते ॥६२८॥ ध्यानकी दुर्लभता जैसे भूमिसे रत्नोंकी उत्पत्ति होनेपर भी सब जगह रत्न पैदा नहीं होता, वैसे ही १ मनोव्यापाररहिते । 'निर्व्यापारे मनोहंसे पुंहसे सर्वथा स्थिरे। बोषहंसः प्रवर्तेत विश्वत्रयसरोवरे ॥१८६।।-प्रबोधसार । २. मुनिः । ३. जानाति । ४. हेयमुपादेयतया उपादेयं हेयतया न पश्येत् । ५. 'मोहादि शत्रसैन्यानां यस्मान्नैव विधिर्मतः । तस्मान्न विस्मयेतास्मिन् परं ब्रह्मसमाश्रितः ॥ १८७॥'-प्रबोधसार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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