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________________ २४४ सोमदेव विरचित [कल्प ३७,श्लो० ५७७परिमाणमिवातिशयेन वियति मतिरुरि गुरुतामुपैति । तविश्ववेदिनिन्दा दिजस्य विश्राम्यति चित्त देवे कस्य ॥५७७॥ कैपिलो यदि वाञ्छति वित्ति मचिंति सुरगुरुगीतुंम्फेल्वेष पतति । बैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुर्पयोगि कस्य वंद तो विदित" ॥५७८॥ भूपवनवनानलतत्त्वकेषु धिषणो निगुणाति विभागमेषु । न पुनर्विदि "तद्विपरीतधर्मधानि ब्रवीति तत्तस्य कर्म ॥५७६॥ जैसे परिमाणका अतिशय आकाशमें पाया जाता है वैसे ही बुद्धिका अत्यन्त विकास मनुष्यमें होता है। इसलिए मीमांसकने जो सर्वज्ञकी आलोचना की है वह हे देव ! किसीके भी चित्तमें नहीं उतरती ॥५७७॥ भावार्थ-जिसमें उतार-चढ़ाव पाया जाता है उसका उतार-चढ़ाव कहीं अपनी अन्तिम सीमाको अवश्य पहुँचता है। जैसे परिमाण ( माप )में उतार-चढ़ाव देखा जाता है अतः उसका अन्तिम उतार परमाणुमें पाया जाता है और अन्तिम चढ़ाव आकाशमें; क्योंकि परमाणुसे छोटी और आकाशसे बड़ी कोई वस्तु नहीं है। वैसे ही ज्ञान भी घटता-बढ़ता है किसीमें कम ज्ञान पाया जाता है और किसीमें अधिक । अतः किसी मनुष्यमें ज्ञानका भी अन्तिम विकास अवश्य होना चाहिए और जिसमें उसका अन्तिम विकास होता है वही सर्वज्ञ है। यदि सांख्य अचेतन प्रकृतिमें ज्ञान मानता है तो यह तो चार्वाकके वचनोंका ही प्रतिपादन हुआ; क्योंकि चार्वाक पञ्चभूतसे आत्मा और ज्ञानकी उत्पत्ति मानता है। और यदि चैतन्य बाह्य वस्तुओंको नहीं जानता तो हे विश्वप्रसिद्ध देव ! आप बतला कि वह कैसे किसीके लिए उपयोगी हो सकता है ? ॥५७८॥ भावार्थ-सांख्य आत्मा मानता है और उसको चैतन्य स्वरूप भी स्वीकार कहता है किन्तु चैतन्यको ज्ञान-दर्शनरूप नहीं मानता। उसके मतसे ज्ञान जड़ प्रकृतिका धर्म है । इसीसे मुक्तावस्थामें चैतन्यके रहनेपर भी वह ज्ञानका अस्तित्व नहीं मानता। इसी बातको लेकर ऊपर ग्रन्थकारने सांख्यमतकी आलोचना की है। चार्वाकगुरु बृहस्पति पृथ्वी, जल, अमि, और वायु तत्त्वसे ज्ञान बतलाता है किन्तु उनसे विरुद्ध धर्मवाले आत्मोंमें ज्ञान नहीं बतलाता । यह उस चार्वाकका महत्पाप है ॥५७९॥ भावार्थ-चार्वाक आत्मा नहीं मानता । उत्तका मत है कि पृथिवी जल आदि भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिसे लोग आत्मा कहते हैं और शरीरके नष्ट होनेपर उसके साथ ही वह शक्ति भी नष्ट हो जाती है। किन्तु पञ्चभूत और आत्माका स्वभाव बिलकुल अलग है। ऐसा नियम है कि जो जिससे उत्पन्न होता है उसके गुण उसमें पाये जाते हैं, मगर पञ्चभूतोंका एक भी गुण आत्मामें नहीं पाया जाता और जो गुण आत्मामें पाये जाते हैं उनकी गन्ध भी पञ्चभूतोंमें नहीं मिलती है। फिर भी ज्ञानको आत्माका गुण नहीं मानता और उसे पञ्चभूतका कार्य बतलाता है । यह उसका कथन ठीक नहीं है । १. जिनविषये निन्दा। २. देवस्य अ० । ३. सांख्यः । ४. ज्ञानम् । ५. अचेतने प्रधाने । ६. चार्वाकवचनेषु चतुर्भूतस्थानेषु । ७. कपिलः । ८. कार्यकारकम् । ९. त्वं वद । १०. चैतन्ये । ११. हे विख्यात । १२. जल । १३. चार्वाकगुरुर्ब्रहस्पतिः । १४. कथयति । १५. विभेदनं ज्ञानम् । १६. आत्मनि शानं न कथयति । १७. तस्मात् अचेतनात् विपरीतधर्मशालिनि । १८. चार्वाकस्य पापं वर्तते ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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