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________________ -१५] उपासकाध्ययन २२५ सम्यकचारित्ररत्नस्याष्टतयोमिष्टिं करोमीति स्वाहा । मपि च धर्म योगिनरेन्द्रस्य कर्मवैरिजयार्जने । शर्मकृत्सर्वसत्त्वानां धर्मधीवृत्तमाश्रये ॥४२॥ जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुश्रद्धानबोधवृत्तानाम् । कृत्वाष्टतयोमिष्टिं विदधामि ततः स्तवं युक्तया ॥४९३॥ तत्त्वेषु प्रणयः परोऽस्य मनसः श्रद्धानमुक्तं जिनै __ रेतद्वित्रिदशप्रभेदविषयं व्यक्तं चतुर्भिर्गुणैः । मष्टा भुवनत्रयार्चितमिदं मूढरपोढं त्रिभि श्चित्ते देव दधामि संसृतिलतोल्लासावसानोत्सवम् ।।४९४॥ ते कुर्वन्तु तपांसि दुर्धरधियो शानानि सञ्चिन्वतां वित्तं वा वितरन्तु देव तदपि प्रायो न जन्मच्छिदः । एषा येषु न विद्यते तव वचः श्रद्धावधानोबुरा दुष्कर्माकुरकुजवज्रदहनद्योतावदाता रुचिः ॥४६॥ पाँच भेदरूप किन्तु समस्त मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाका अत्यन्त शान्त हो जाना ही जिसकी चरम सीमा है उस समस्त मङ्गलोंके कर्ता और पञ्चपरमेष्ठीके पुरस्कर्ता भगवान् सम्यक्चारित्रकी आठ द्रव्योंसे पूजन करता हूँ। जो योगीरूपी राजाके कर्मरूपी वैरियोंको जीतनेमें धनुषके समान है तथा सब प्राणियोंको सुख देने वाला है, मैं धर्म बुद्धिसे उस चारित्रकी शरण जाता हूँ ॥४९२॥ इस प्रकार अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी अष्टद्रव्यसे पूजन करके मैं इनका युक्तिपूर्वक स्तवन करता हूँ ॥४६३॥ सम्यग्दर्शनकी भक्ति - [ सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनकी भक्ति इस प्रकार करे-] जिनेन्द्र देवने तत्त्वोंमें मनकी अत्यन्त रुचिको सम्यग्दर्शन कहा है। इस सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणके द्वारा सम्यक्त्वकी पहचान होती है। उसके निःशंकित, निःकांक्षित आदि जाठ गुण हैं । वह तीन प्रकार-. की मूढ़तासे रहित होता है। हे देव ! संसार रूपी लताका अन्त करनेवाले और तीनों लोकोंमें पूज्य उस सम्यग्दर्शनको मैं अपने हृदयमें धारण करता हूँ ॥४९४॥ हे देव ! जिनकी आपके वचनोंमें एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्म रूपी अंकुरोंके समूहको भस्म करनेके लिए वज्राग्निके प्रकाशकी तरह निर्मल है, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें, कितना ही ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दें, फिर भी जन्म परम्परा का छेदन नहीं कर सकते ॥४९५॥ १. धर्मयोगि-अ० ज० मु. आ० । २. बोधरत्नानाम् आ० मु.। ३. नैस्तत्त-अ० ज०। निसर्गाधिगम-उपशम-क्षायिक-मिश्र, आज्ञामार्गादि। ४. उपशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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