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उपासकाध्ययन
- हरिषेणने ९८८ ई० में अपभ्रंशमें अपनी धर्मपरीक्षा रची थी। उन्होंने अपभ्रंश भाषाके पुष्पदन्त, स्वयंभु और चतुर्मुख इन तीन महाकवियोंका निर्देश किया है, तथा स्वयं 'पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें (१-९) स्वयंभु और चतुर्मुखका निर्देश किया है। स्वयंभुके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभु भी कवि थे, उन्होंने अपने पिताके द्वारा रचित पउमचरिउ और रिट्ठनेमिचरिउकी पूर्ति योगदान किया था।
स्वयंभुको आठवीं या नौवीं शताब्दीमें रखा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने अपने पउमचरिउमें पद्मवरितके रचयिता- रविषेण ( ७ वीं शताब्दी ) का निर्देश किया है और स्वयं उनका निर्देश पुष्पदन्तने किया है। चतुर्मुख स्वयंभुसे प्राचीन है क्योंकि स्वयंभुने अपने रिट्ठणेमिचरिउमें उनका निर्देश किया है। स्वयंभुने अपने 'स्वयंभु छन्द' नामक ग्रन्थमें अपभ्रंश भाषाके अनेक कवियोंका उल्लेख किया है।
. इस तरह सोमदेवके समयमें तथा उनसे पूर्व अपभ्रंश भाषाको साहित्यिक परम्परा प्रवर्तित थी और वे उससे निस्सन्देह रूपमें प्रभावित थे; क्योंकि उन्होंने उपासकाध्ययनमें अपभ्रंश छन्दोंका प्रयोग बड़ी चतुरतासे किया है। पूर्वज तथा उत्तरकालीन विद्वान्
नौंवी शताब्दीके प्रारम्भसे लेकर दसवीं शताब्दीके पूर्व भाग तक हुए सोमदेवके पूर्वज ग्रन्थकारोंमें धवला, जयधवलाके रचयिता वीरसेन, आदिपुराणके रचयिता जिनसेन, हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन, उत्तरपुराण और आत्मानुशासनके रचयिता गुणभद्र, शाकटायन व्याकरणके रचयिता पाल्यकीर्ति, अष्टसहस्री और तत्त्वाथश्लोकवातिक आदिके रचयिता विद्यानन्दि, उपमितिभवप्रपञ्चकथाके रचयिता सिद्धषि, बहत्कथाकोशके रचयिता हरिषेण, नयचक्रादिके रचयिता देवसेन तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदिके रचयिता अमृतचन्द्रके नाम उल्लेखनीय हैं। दसवीं शताब्दीके अन्तिम चरणसे लेकर ग्यारहवीं शताब्दीके प्रथम चरण तकके कालमें हुए सोमदेवके अव्यवहित उत्तरकालीन ग्रन्थकारोंमें चामुण्डराय, कन्नड़ अजितपुराण और गदायुद्धके रचयिता रन्न, बाणको कादम्बरीके कन्नड़ अनुवादकर्ता नागवर्मा, गोमट्टसारादिके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती. न्यायकूमदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्र, पाश्वनाथचरित. यशोधरचरित और न्यायविनिश्चयविवरणके रचयिता वादिराज, गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूड़ामणि के रचयिता वादोभसिंह, तिलकमञ्जरीके रचयिता धनपाल, सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा, पञ्चसंग्रह,श्रावकाचार आदिके रचयिता अमितगति, वर्धमानचरितके रचयिता असग, प्रद्युम्नचरितके रचयिता महासेन और चन्द्रप्रभचरितके रचयिता वीरनन्दी आदिके नाम उल्लेखनीय हैं। वैदुष्य-परिचय
सोमदेवकी ख्याति उनके गद्य-पद्यात्मक काव्य यशस्तिलक और राजनीतिकी पुस्तक नीतिवाक्यामतको लेकर है। यदि इनमें से नीतिवाक्यामतको छोड़ भी दिया जाये तो अकेला यशस्तिलक ही उनके वैदुष्यके परिचयके लिए पर्याप्त है । उसमें उनके अपूर्व वैदुष्यके विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। संस्कृत गद्य और पद्यरचनापर उनका पर्ण प्रभत्व है. जैन सिद्धान्तोंके अधिकारी विद्वान होनेके साथ हो वे प्रतिपक्षी दर्शनोंके दक्ष आलोचक भी है । राजनीतिका उनका अध्ययन बहुत गम्भीर है और इस दृष्टि से उनकी दोनों सुप्रसिद्ध रचनाएँ परस्परमें एक दूसरेकी पूरक हैं। नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें एक श्लोक इस प्रकार है, .
"सकलसमयत नाकलकोऽसि वादी न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्तदेवः । न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तवं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम् ॥"
१. पुष्पदन्त तथा स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभुके विषयमें विशेष जाननेके लिए प्रेमीजीका 'जैन
साहित्य और इतिहास' देखें।