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________________ -४३० ] २०१ भट्टिनी - कार्यमेतदेव । दिवा संप्रकाशमेतस्मात्पुरात्प्रस्थाय निशि मिभृतं च प्रत्यावृत्य अत्रैव महावकाशे निजनिवासनिवेशे सुखेन वस्तव्यम् । उत्तरत्राहं जानामि । उपासकाध्ययन भट्टः–तथास्तु । ततोऽन्यदा तया परनिकृतिपाध्या धाड्या सदुराचाराभिषङ्गः कडारपिङ्गः सुप्तजनसमये समानीतः 'समभ्यस्तु तावदि हैवेयमयं च महीमूलं यियासुः पातालावाल दु :लम्' इत्यनुध्याय तया पद्मया 'महावर्तस्य गर्तस्योपरि कल्पिातायामवानायां खट्वायां क्रमेणोपवेशितवपुषौ तौ द्वावपि दुरातङ्कावन्ध्ये श्वभ्रमध्ये विनिपेततुः । अनुबभूवतु निमिलपरिजनोच्छिष्टसिक्थजीवनौ कुम्भीपाकोपक्रमं षट्समोशाखान्दुः खक्रमम् । पुनरेकदा 'स्वाम्यादेशविशेषविदुष्यः पुष्यः तथाविधपक्षिप्रसवसमर्थपक्षिणीसहितं कृतपज्जरपरिकल्पं किअल्पमादाय भागच्छंस्त्रिचतुरेषु वासरेष्वस्यां पुरि प्रविशति' इति प्रसिद्धम् । प्रवर्तिनी भट्टिनी विविधवर्णविडम्बितकायेन चटकचकोरचाषचातकाविच्छुदच्छादितप्रतीक निकायेन पज्जरालयेन तद्द्वयेन सह चिरप्रवासोचितवेषजोष्यं पुष्यं पुरोपवने विनिवेश्य भट्टोद्भूतारम्भसंभाषण सनाथसखीजनसंकल्पा धृतप्रोषितभर्तृकाकल्पाभि'मुलमयासीत् । अपरेद्युः स निखिलगुणविशेष्यः पुष्यः पृथिवीपतिभवनमनुगम्य 'देव, श्रयं स किअल्पः पक्षी, इयं च तत्प्रसवित्री पतत्रिणी च' इत्याचरत् । पद्मा—यही करना चाहिए कि दिन चढ़नेपर इस नगरसे प्रस्थान करो और रातमें चुपचाप लौट कर अपने इसी बड़े मकानके किसी एक हिस्से में सुखसे निवास करो । आगे जो करना है वह मैं कर लूँगी । पुष्य - ठीक है । दूसरे दिन जब सब सो गये तो वह ठगनी घाय उस दुराचारी कडारपिंगको लेकर आयी । उधर पद्माने यह सोचकर कि 'ये दोनों नरकगामी इसी जन्म में नरकके दुःखों को सहनेका अभ्यास क्यों न करें' अपने घरमें एक खूब गहरा गढ़ा खुदवाकर उसके ऊपर बिना बुनी खाट बिछा दी और खाटपर एक कपड़ा डाल दिया । वे दोनों जैसे ही उस वाटपर बैठे दोनों उस गड्ढे में गिर गये । और छह मासतक सबका झूठा भात खाकर नरकके समान दुखोंको भोगते रहे । एक दिन सारे नगर में यह बात फैल गयी कि स्वामीकी आज्ञाका पालक पुष्य एक पिंजरेमें किल्प पक्षीको और इस प्रकारके पक्षीको जन्म दे सकने वाली पक्षिणीको लेकर आ रहा है और तीन चार दिनमें वह इस नगर में प्रवेश करेगा। उधर पद्माने उन दोनोंके शरीरोंको अनेक रंगों से रँगा और चिड़िया, चकोर, नीलकण्ठ, चातक आदि पक्षियोंके पर उनपर चिपका दिये । तथा पिंजरे में बन्द करके उन दोनोंके साथ अपने पति पुष्यको चिर प्रवासके योग्य वेश बनाकर पहले से नगरके बाहर स्थित उपवनमें भेज दिया। और आप विरहिणी स्त्रीका वेश बनाकर पुरोहितके अद्भुत कार्यके सम्बन्धमें बातचीत करनेके लिए आतुर सहेलियोंके साथ पति से मिलने गयी । दूसरे दिन गुणी पुष्य राजभवनमें जाकर बोला - "महाराज ! यह किंजरूप पक्षी है और १. माया । २. दुराचारेण सह अभिषङ्गः सम्बन्धो यस्य । ३. धात्रीकडारपिंगी । ४. विस्तारेण गम्भीरस्य । ५. मासान् । ६. अवयव । ७. सेवनीयम् । ८. वेषा । ९. सम्मुखं गता । २६
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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