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उपासकाध्ययन
१६७ 'पोशातः । तथा चाह येयं तावदेतदाकूतपरिपाकम् । (प्रकाशम् । ) आर्ये, किमस्य सुभाषितस्य ऐदम्पर्यम् ।
धात्री-परमसौभाग्यभागिनि भट्टिनि, जानासि एवास्य सुभाषितस्य "कैम्पर्यम् , यदि न वज्रघटितहृदयासि। .
भटिनी-(स्वगतम् ) सत्यं वज्रघटितहृदयाहम् , यदि भवत्प्रयुक्तोपघातघण: जर्जरितकाया न भविष्यामि । (प्रकाशम् ) आर्ये, हृदयेऽभिनिविष्टमर्थ श्रोतुमिच्छामि । धात्री-वत्से, कथयामि । किं तु । 'चित्तं द्वयोः पुरत एव निवेदनीयं ।
मानाभिमानधनधन्यधिया नरेण । यः प्रार्थितं न रहयत्यभियुज्यमानों ..
यो वा भवेन्ननु जनो मनसोऽनुकूलः ॥४२६॥ भट्टिनी-(स्वगतम् ) अहो नभः प्रकृतिमपीयं पङ्करुपलेप्तुमिच्छति। (प्रकाशम् ) आयें, ''उभयत्रापि समर्थाहं न चैतन्मदुपझं भवदुपक्रम था।
धात्री-(स्वगतम्) 'अनुगुणेयं खलु कार्यपरिणतिः, यदि निकटतटतन्त्रस्य वहिपात्रस्येव 'दुर्वातालीसन्निपातो न भवेत् । (प्रकाशम् ) अत एव भद्रे, वदन्ति पुराणविद :योग्य दुराचारका महल बनानेके लिए पहली नापा-जोखी जैसी है । फिर भी जो कुछ इसने कहा है उसके अभिप्रायको परिपक्व करने का प्रयत्न करना चाहिए।' यह सोच धायसे बोली-'माता आपके इस सुभाषितका क्या मतलब है ?'
धाय--परम सौभाग्यवती देवी यदि तुम्हारा हृदय वज्रका नहीं है तो इस सुभाषितका मतलब तुम जानती ही हो।
__ पद्मा--(मनमें ) यदि तुम्हारे द्वारा फेंके गये इस लोह मुद्गरसे मेरा मन चूर्ण नहीं. होता तो जरूर मेरा हृदय वज्रसे बना है। (प्रकाशमें ) माता ! हृदयमें वर्तमान अर्थको मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ।
धाय---पुत्री ? बतलाती हूँ । किन्तु समझदार और स्वाभिमानी मनुष्यको दोके ही सामने अपने मनकी बात कहनी चाहिए। एक तो उससे, जो प्रार्थना करने पर प्रार्थनाको अस्वीकार न करे । दूसरे उससे, जो अपने मनके अनुकूल हो ॥४२६॥
पद्मा-( मनमें ) देखो इसकी धृष्टता, आकाशकी तरह निर्लिप्त वस्तुको भी यह कीचड़से लोपना चाहती है । (प्रकाशमें ) माता ! मैं उक्त दोनों बातोंमें समर्थ हूँ। न मेरे लिए यह कोई नयी बात है और न इसमें तुम्हारा ही कुछ प्रयत्न है।
धाय-(मनमें ) यदि कोई तूफ़ान न आ पहुँचे तो तटके निकट आये हुए जहाजकी तरह यह कार्य सिद्ध है। (प्रकाशमें ) पुत्री ! इसीलिए पुराणकारोंने कहा है कि प्राचीनकालमें
१. अवतारणक्रमः । २. या इयं धात्री आह । ज्ञेयं आ० । ३. अभिप्रायोदयं सूत्रपातसदशम् । ४. रहस्यम् । ५. रहस्यम् । ६. -घुण-अ० ज०। ७. -न धवनधन्य- आ० ज०। ८. त्याजयति । ९. प्रार्थितः । १०. आकाशस्वभावम् । ११. प्रार्थितदाने मनोऽनुकूलतायाञ्च । १२. न हि मदीय उपाधिन च भवदीय उद्यमः किन्तु पुरैव ईदृशी गतिरस्ति । १३. अनुकूला इयम् । १४. पोतस्य । १५. वात्या ।