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प्रस्तावना
लिए उसके स्त्री-पुत्रादिकपर घोर उपद्रवका प्रदर्शन किया, किन्तु वह अविचल रहा। दूसरी ओर कुसुमपुरमें पुरुहूत देवर्षि आतापन योगमें स्थित होते हुए भी चरके द्वारा अपने पुत्रपर शत्रुका आक्रमण सुनकर विचलित हो गये।"
सोमदेवने संकल्पका महत्त्व बतलाते हए और भी लिखा है कि चिरकालसे संचित किया हआ पुण्यकर्मका संचय प्रमादवश एक बारके भी दुष्ट संकल्पसे क्षण-भरमें उसी तरह नष्ट हो जाता है जैसे आगसे महल । जगत्में यह उदाहरण अति प्रसिद्ध है कि एक वेश्याके शवको देखकर एक मुनि, एक कामी और एक शवभक्षी मनुष्यने अपने-अपने संकल्पके अनुसार विचित्र कर्मबन्ध किया। अतः जैसे संकल्पसे मनुष्योंमें कामविकार उत्पन्न होता है और गौके स्तनमें दूध आता है, वैसे ही मनुष्य मानसिक भावोंके अनुसार पुण्य या पापकर्मका बन्ध करता है।
इस प्रकार यशस्तिलकके कथाभागमें भी सोमदेवने जैनधर्मके सिद्धान्तोंके सम्बन्ध विस्तारसे लिखा है। [ ३ ] सोमदेव और उनका युग
सोमदेवके तीन अन्य उपलब्ध हैं-यशस्तिलक, नीतिवाक्यामत और अध्यात्मतरंगिणी। तीनों ही मुद्रित होकर 'प्रकाशित हो चुके हैं। पहलेमें आठ आश्वासोंमें गद्य और पद्यमें राजा यशोधरकी कथा वणित है; इसीसे उसे 'यशोधर महाराज चरित' भी कहते हैं। दूसरे ग्रन्थमें सूत्र शैली में राजनीतिका कथन है । इसमें ३२ अध्याय हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि नीतिवाक्यामृतकी रचना यशस्तिलकके पश्चात् हुई है । तीसरा ग्रन्थ ४० पद्योंका एक प्रकरण है।
सोमदेवने यशस्तिलकके अन्तमें अपने विषयमें पर्याप्त सूचना दी है। वह देवसंघके आचार्य यशोदेवके प्रशिष्य और नेमिदेवके शिष्य थे। नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्रदेवके लघुभ्राता थे, और 'स्याद्वादाचलसिंह', 'तार्किकचक्रवर्ती', 'वादोभपञ्चानन', 'वाक्कल्लोलपयोनिधि' तथा 'कविकुलराज' उनकी उपाधियां थीं। उसमें यह भी लिखा है कि सोमदेव यशोधर महाराजचरित, षण्णवतिप्रकरण, महेन्द्र-मातलि-संजल्प और युक्तिचिन्तामणिस्तवके रचयिता थे। समय और स्थान
सोमदेवने लिखा है कि शक संवत् ८८१ (९५९ ई०) में सिद्धार्थ संवत्सरमें चैत्रमासकी मदनत्रयोदशीके दिन, जब कृष्णराजदेव पाण्ड्य, सिंहलं, चोल और चेरम आदि राजाओंको जीतकर मेलपाटीमें शासन करते थे, यशस्तिलक समाप्त हुआ। सोमदेवका यह कथन ऐतिहासिक सत्यताकी दृष्टिसे भी उल्लेखनीय है, क्योंकि सोमदेवके यशस्तिलकको समाप्तिसे कुछ ही सप्ताह पूर्व मेलपाटीमें 8 मार्च सन ९५९ ई. के दिन अंकित किये गये महान् राष्ट्रकूट चक्रवर्ती कृष्ण तृतीयके करहाट ताम्रपत्रसे उसका समर्थन होता है। इस ताम्रपत्रमें चोलोंके साथ चेरम,पाण्ड्य, सिंहल आदि देशोंके राजाओंके ऊपर कृष्णराज तृतीयकी विजयका निर्देश है। तथा उसमें यह भी लिखा है कि कृष्णराजने अपना विजय-कटक मेलपाटीमें स्थापित किया था,
- "मेलपाटीसमवसितश्रीमद्विजयकटकेन मया" एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि पुष्पदन्तने अपने अपभ्रंशभाषामें निबद्ध महापुराणमें भी कृष्णराज तृतीयके मेलपाटीमें ससैन्य निवासका उल्लेख किया है। जिस ९५९ ई० में सोमदेवने अपना यशस्तिलक
१. प्रथम ग्रन्थ निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे १९०१ में तथा दूसरा और तीसरा माणिकचन्द दि० जैन
ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुए हैं। २. “श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः । तस्याश्चर्यतपःस्थितेनिनवतेजेंतुर्महावादिनां शिष्योऽमदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष कान्यक्रमः ॥"