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________________ -३६६] उपासकाम्ययन १८७ नगरनिवासहर्षिभिर्ज नैरगणितापकारं सरासमारोहणावतारं कण्ठप्रदेशप्राप्तप्राणः पुरुपूत्कतोल्वणकाणः सकलपुरवीथिषु विश्वरघुष्ठानुजातो निष्काशितः श्वपचस्मशानांशुकपिहितमेहनो विपरीतक्षुरधाराचरितमार्गमुण्डनः प्रकाशितशिखाश्रीफलजालो गलनालावलम्बित. शरावमालः प्रथीयसि वनगहनरहसि प्रविष्टः तुच्छोदकद्वीपिनीतटिनोतनिकटोपविष्टस्तेन कालासुरेण दृष्टः। प्रत्यवमृष्टहचेष्टेन 'चाहं तावद्वैकारिकप्रिचिकाशयिषुशक्तिः एषोऽपि स्वमतप्रतितिष्ठापयिषुमतिप्रसक्तिरतः निष्प्रतिघः खलु मे कार्योलाघः' इति निभृतं वितयं पर्याप्तपरिबाजकवेषेण मायामयमनीषेण भाषितश्च। तथा हि-'पर्वत, केन खलु समासन्नकीनाशकेलिनर्मणा दुष्कर्मणा विनिर्मापितनिर्वरोपकारः' । पर्वतः-'तात, को भवान् । 'पर्वत, भवत्पितुः खलु प्रियसुहृदहं सहाध्यायी शाण्डिल्य इति नामाभिधायी। यदा हि वत्स, भवान्घोडन्समभवत्तदाहं तीर्थयात्रायामगाम् । इदानीं चोगाम् । अतो न भवान्मां सम्यगवधारयति । तत्कथय हन्त कारणमस्य व्यतिकरस्य'। पर्वतः-'मत्प्राणितपरित्राणसअन् भगवन् , समाकर्णय। समस्तागमरत्नसन्निधातरि सुकृतमणिसमाहर्तरि जिनरूपानुजातरि पितरि नाकलोकमिते सति स्वातन्त्र्यादेकदा प्रदीप्तनिकामकामोद्रमः संपन्नपण्यासनाजनसमागमः कृतपिशितकापिसायनस्वादः पापकर्मप्रासादः चेतनप्यार्योपदिष्टं विशिष्टं व्याख्यानमहं दुरात्माख्यानः" स्वव्यसनविवृद्धये कफनके टुकड़ेसे उसकी नग्नताको ढाँक दिया गया था। बेचारा रास्ते-भर चिल्लाता जाता था। कष्टसे प्राण कण्ठमें आ गये थे। इस रूपमें उसे नगरसे निकाल दिया गया और वह एक घने जंगलमें घुसकर एक नदीके किनारे बैठ गया । वहाँ उसे कालासुर नामके व्यन्तरने देखा । उसके मनकी दशा जानकर कालासुरने सोचा-'मैं अपनी विक्रिया शक्तिको दिखलाना चाहता हूँ और यह अपना मत चलाना चाहता है अतः मेरा काम निर्विघ्न होगा।' ऐसा विचारकर उसने संन्यासीका वेष धारण किया और मायावी बुद्धिसे बोला-'पर्वत ! जल्दी ही यमराजकी क्रीड़ाके शिकार बननेवाले किस दुष्टने तुम्हारे साथ यह निष्ठुर व्यवहार किया है ?' पर्वत- पिता ! आप कौन हैं ? 'मैं तुम्हारे पिताका सहपाठी मित्र हूँ। मेरा नाम शाण्डिल्य है। जब तुम्हारे दाँत निकले थे तब मैं तीर्थयात्राके लिए चला गया था। और अब लौटा हूँ। इसलिए तुम मुझे नहीं पहचानते हो । अपनी इस विपत्तिका कारण बतलाओ ।' ..... पर्वत– 'मेरे प्राणोंके रक्षक भगवन् ! सुनिए । समस्त आगमरूपी रत्नोंके धारक और पुण्यरूपी मणियों के संग्राहक मेरे पिता जिन-दीक्षा धारण करके जब स्वर्गलोकको चले गये तो मैं स्वतन्त्र हो गया। एक दिन मैंने कामके वशीभूत होकर वेश्या सेवन किया और मांस-मदिराका स्वाद लिया। 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्यका पिताजीने जो व्याख्यान किया था उसे जानते हुए १. महत् । २. सारमेयाः पृष्ठतो भवन्ति । विस्वरघुष्टा -आ० । ३. चाण्डालचितास्थानवस्त्रेण कृतकौपीनः । ४. नदी। ५. निर्विघ्नः । ६. निश्चलं विचार्य । ७. तपस्वि । ८. यम । ९. निष्ठुर । १०. यदा तव षड़दन्ताः । ११. आगतः । १२. अहो। १३. जीवितरक्षणे । १४. संधारके। १५. कृतवेश्यासमागमः । १६. मद्य । १७. जानन्नपि पित्रा उपदिष्ठम् । १८. दुरात्मा-दुष्टस्वभावमाख्यानं चरितं यस्य सोऽहम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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