SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३६१ ] उपासकाध्ययन तथा तथात्मनाडीषु तमोधारा निषिञ्चति ॥३८॥ दोषतोयैर्गुणग्रीष्मः संगन्तृणि शरीरिणाम् । भवन्ति चित्तवासांसि गुरूणि च लघूनि च ॥३८॥ सत्यवाक्सत्यसामर्थ्याद्वचासिद्धिं समश्नुते ।। वाणी चास्य भवेन्मान्या यत्र यत्रोपजायते ॥३६०॥ तामर्षहर्षायेम॒षाभाषामनीषितः। 'जिह्वाच्छेदमवाप्नोति परत्र च गतिक्षतिम् ॥३६१॥ श्रूयतामत्रासत्यफलस्योपाख्यानम्-जाङ्गलदेशेषु हस्तिनागनामावनीश्वरकुअरजनितावतारे हस्तिनागपुरे प्रचण्डदोर्दण्डमण्डलीमण्डनमण्डलानखण्डितभण्डनकण्डूलारातिकीर्तिलतानिबन्धनोऽभूदयोधनो नाम नृपतिः। अनवरतवसुविधाणनप्रीणितातिथिरतिथि मास्य महादेवी। सुता चानयोः सकलकलावलोकानलसा सुलसा नाम । सा किल तया महादेव्या गर्भगतापि मातेयेनैकोदरेशालिनो रम्यकदेशनिवेशोपेतपोदनपुरनिवेशिनो निर्विर्पक्षलक्ष्मीलक्षिताणमङ्गलस्य पिङ्गलस्य गुणगीर्वाणाचलरत्नसानवे सूनवे दुरवैरिवक्षःस्थलोहलनावंदानोद्योगलागलाय मधुपिङ्गलाय परिणिता बभूव ।। भूभुजा च महोदयेन तेन विदितमहादेवीहृदयेनापि 'यस्य कस्यचिन्महाभागस्य भाग्यैभोग्यतया योग्यमिदं स्त्रैणं द्रविणं तस्यैतद्भयात् । अत्र सर्वेषामपि वपुष्मतामचिन्तितसुखअन्धकार फैलाता है वैसे-वैसे अपनी नाड़ियोंमें अन्धकारकी धाराको प्रवाहित करता है । अर्थात् दूसरोंका बुरा सोचनेसे अपना ही बुरा होता है ॥ ३८८ ॥ प्राणियोंके चित्तरूपी वस्त्र यदि दोषरूपी जलमें डाले जाते हैं तो भारी हो जाते हैं और यदि गुणरूपी ग्रीष्म ऋतुमें फैलाये जाते हैं तो हल्के हो जाते हैं ॥ ३८९ ॥ सत्यवादीको सदा सच बोलनेके कारण वचनकी सिद्धि प्राप्त होती है। जहाँ-जहाँ वह जो कुछ कहता है उसकी वाणीका आदर होता है ।। ३९० ॥ इसके विपरीत जो तृष्णा, ईर्षा, क्रोध या हर्ष वगैरह के वशीभूत होकर झूठ बोलता है उसकी ज़िहा कटवा दी जाती है और परलोकमें भी उसकी दुर्गति होती है ।। ३९१ ॥ १५ असत्यभाषी वसु और पर्वत-नारदकी कथा। अब झूठ बोलनेका क्या फल होता है इसके विषयमें एक कथा सुनें-जांगल देशमें हस्तिनागपुर नामका नगर है, वहाँ अयोधन नामका राजा था। उसके अतिथि नामकी राजमहिषी थी। उनके समस्त कलाओंमें निपुण सुलसा नामकी पुत्री थी। जब वह गर्भमें थी तभी रानीने अपने सहोदर भाई पोदनपुरनरेश पिंगलके गुणी पुत्र मधुपिंगलके साथ उसका वाग्दान करनेका संकल्प कर लिया था । राजाको यद्यपि रानीके हृदयकी बात ज्ञात थी फिर भी उसने सोचा कि 'यह स्त्रीधन १. 'तथा अनृतवादी अश्रद्धेयो भवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते।""प्रेत्य च अशुभां गतिम् ॥' -सर्वार्थसिद्धि ७, ९ । २. हस्तिनागनामा कश्चिद् राजा तत्र पूर्वमभूत् तेन तन्नगरं हस्तिनागपुरमित्यभवत् । ३. नामा चास्य-मु०। ४. ज्ञातेर्भावः ज्ञातेयं तेन बन्धुत्वेन इत्यर्थः । ५. अतिथिपिंगलावेकोदरोत्पन्नौ। ६. शत्रुरहित । ७. परिपूर्ण । ८. गुणा एव गोर्वाणाचलः मेरुस्तत्र रत्नशिखराय । ९. उद्दलनाय अवदान तत्र उद्योग एव लाङ्गलं यस्य तस्मै । १०. संकल्पिता । २३
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy