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________________ सोमदेव विरचित [कल्प २७, श्लो० ३७४परप्रतारणाभ्यस्तभुतिगीतिः श्रीभूतिः 'सुप्रयुक्तेन दम्भेन स्वयंभूरपि वञ्च्यते। का नामालोचनान्यत्र संवृत्तिः परमा यदि ॥३७४॥' इति परामृश्य महाघवाघ्रातचेतास्तमायातशुवमेवमवोचत्-'अहो दुर्दुरूट किराट, किमिह खलु त्वं केनचित्पिशाचेन छलितः, किमु मनोमहामोहावहानुरोधेन मोहनौषधेना तिलहितः, किंवा कितवव्यवहारेषु हारितसमस्तचित्तवृत्तिः, उत अहो परचित्तवञ्चनपिशाचिकया कयाचिल्लजिकयाँ जनितदुष्प्रवृत्तिः, आहोस्वित्फलवतः पादपस्येव श्रीमतः क्रियमाणोऽभियोगो न खलु किमपि फलमसंपाद्य विश्राम्यतीति चेतसा केनचिौघसा विप्रलब्धबुद्धिर्येनैवमतिविरुद्धमभिघत्से । काहम् , क भवान् , क मणयः, कश्चावयोः सम्बन्धः । तत्कूटकपटचेष्टिताकर पट्टनपोटघर, अणकपणिक, सकलमण्डलप्रतीतप्रत्ययिकशीलमति“वेलमेवं मामकाण्डे चण्डकर्मन्पर्यनुयुजानः कथं न लजसे'। पुनश्चैनमर्थप्रार्थनपथमनोरथविशालं शब्दालं" बलात्पोलिन्दमन्दिरमनुचरैरानाय्यानायमतिः', 'देव, अयं वणिग्निष्कारणमस्माकं दुरपवादमृदङ्गवन्मुखरमुखः सुखेनानस्तितस्तानक इवासितुं न ददाति' इत्यादिभि रुदितैरवाप्तप्रसरतयोत्तेजितराजहृदयस्तथैव पृथिवीनाथेनापि निराकारयंत् । अतः दूसरोंको ठगनेमें कुशल श्रीभूतिने सोचा-- 'यदि अच्छी तरहसे छलका प्रयोग किया जाये तो ब्रह्माको भी ठगा जा सकता है। और यदि दूसरे मनुष्यमें बड़ा परिवर्तन हो गया हो तब तो आलोचनाकी बात ही दूर है' ।।३७४॥ ऐसा विचारकर वह महातृष्णालु उस शोकमग्न वणिकपुत्रसे इस प्रकार बोला-'अरे दुराग्रही नीच वणिक् ! क्या तुझे किसी पिशाचने छला है ? या मनको मोहित करनेवाली किसी मोहन औषधने तुझे बदहोश कर दिया है ? या जुएमें अपनी चित्तवृत्तिको भी हार गया है ? या दूसरोंके मनको ठगनेवाली किसी दुराचारिणीने तेरी यह दुर्गति की है ? या 'फलवान वृक्षकी तरह किसी श्रीमानके विरुद्ध लगाया गया अभियोग बिना फल दिये नहीं रहता' इस विचारसे किसी दुर्बुद्धिने तुझे ठगा है जिससे तू ऐसी बेसिर-पैरकी बात बोलता है ? कहाँ मैं, कहाँ तू , कहाँ रत्न ? हमारा तुम्हारा सम्बन्ध ही क्या ? छल-कपटमें चतुर, नगरचोर, निन्दनीय वणिक ! सर्वत्र देशोंमें मेरी विश्वसनीयताकी ख्याति है। इस तरह असमयमें मुझसे पूछते हुए तुझे लज्जा नहीं आती?' इसके पश्चात् उस पिशाच श्रीभूतिने अपने रत्न प्राप्त करनेके लिए चिल्लाते फिरते उस वणिक पुत्रको जबरदस्ती नौकरोंके द्वारा राजमन्दिरमें बुलवाकर राजासे कहा—'महाराज ! यह वणिक् व्यर्थ ही सर्वत्र हमारा अपवाद करता फिरता है । विना नाथके बैलकी तरह सुखसे बैठने भी नहीं देता।' इत्यादि बातोंके द्वारा उसने राजाका हृदय भी उसकी ओरसे उत्तेजित कर दिया। और राजाके द्वारा भी उसे महलसे निकलवा दिया। १. शास्त्रं वेदः स्मृतिश्च । २. विचारः । ३. परनरे । ४. तृष्णा । ५. प्राप्तशोकम् । ६. दुराग्रहिन् । ७. वेश्यया। ८. वदसि । ९. नगरचौर । १०. निन्द्यवणिक । ११. विश्वासस्वभावम् । १२. अतीव । १३. प्रच्छन् । १४. वाचालम् । १५. राजमन्दिरम् । १६. असंगतमतिः। -नार्यमतिः आ० । १७. नाथरहितवृषभवत् । १८. निर्घाटनं कारयामास ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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