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प्रस्तावना
ठहर नहीं सकता। अतः पुत्र, दुर्वासनाको छोड़कर दुःस्वप्नको शान्ति तथा अपने जीवनको रक्षाके लिए कुलदेवताके सामने जीवोंको बलि दो। क्या महामुनि गौतमने अपने प्राण बचाने के लिए अपने उपकारी बन्दरको नहीं मारा था ? क्या विश्वामित्रने कुत्तेको नहीं मारा था। इसी तरह अन्य राजाओंने भी शिवि, दधीचि, बलि, बाणासुर वगैरह राजाओंको तथा गाय वगैरहको मारकर अपना शान्तिकर्म किया था। जैसे विषको औषध विष है वैसे ही हिंसा भी पण्यके लिए होती है। गो, ब्राह्मण, स्त्री, मनि और देवताओंके चरितका विचार विद्वान लोग नहीं किया करते । यदि तुझे अपने जीवनसे कुछ प्रयोजन न हो तो अति, स्मृति, इतिहास और पुराणोंकी बातको मत मान । जैसा जगत्का प्रवाह हो वैसा ही बरतना चाहिए।"
____ आगे चन्द्रमती मधु और मांसको प्रशंसा करते हुए कहती है कि यदि मधु और मांसका सेवन करने में महादोष है तो महषियोंने ऐसा क्यों कहा है,
"न मांसभक्षणे दोषो न मये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेव भूतानां निवृत्तेश्च महत्फलम् ॥'' किन्तु माताके द्वारा दिये गये प्रमाणोंसे भी यशोधरका विचार परिवर्तित नहीं होता और वह पुनः कहता है, “माता, दूसरोंके विषयमें मनसे भी बुरा नहीं विचारना चाहिए; तब मैं उसी कामको स्वयं साक्षात् कैसे कर सकता हूँ ? क्या तुमने लोकमें प्रसिद्ध राजा वसुको और तन्दुल मत्स्यको कथा नहीं सुनी ? कोई अभागा मनुष्य यदि अमृत समझकर विषका पान करता है तो क्या उसकी मृत्यु नहीं होती? जो मनुष्य पाप और अज्ञानसे ग्रस्त हैं, उनका दुराचरण सज्जनोंके लिए उदाहरणरूप नहीं होता है। जैसे उठती हुई धूल सबके ऊपर समान रूपसे पड़ती है वैसे ही पाप भी जाति और कूलका विचार नहीं करता है। जन्म, जरा और मृत्यु, राजा हो या रंक, सबको समान भावसे अपनाते हैं। राजा और अन्य मनुष्योंमें पुण्यकृत ही भेद होता है, मनुष्य. रूपसे सभी मनुष्य समान हैं । हे माता, जैसे मेरे प्राणोंका घात होनेपर आपको महान् दुःख होता है वैसे ही दूसरे जीवोंका भी घात होनेपर उनकी माताओंको महान् दुःख होता है । यदि दूसरोंके जीवनसे अपनी रक्षा हो सकती तो पुराने राजा लोग क्यों मरते ? यदि सर्वत्र शास्त्र प्रमाण है तो कुत्ते और कौएका मांस भी खाना चाहिए। परस्त्री गमनको लोकमें निन्दा माना गया तब माताके साथ ऐसा कुकर्म कौन करेगा। यदि कोई मनुष्य मांस खाना चाहता है तो उसके लिए शास्त्रका उदाहरण देनेकी क्या आवश्यकता है? लोगोंके मनके अनुकूल इन्द्रियलम्पटोंने अपनी जीविकाके लिए शास्त्र रचे हैं। यदि पशुके घातकोंको स्वर्ग मिल सकता
इयोंको तो अवश्य ही स्वर्ग मिलना चाहिए। चाहे मन्त्रोंके द्वारा किसोका वध किया जाये, चाहे शस्त्राघातके द्वारा, चाहे यज्ञकी वेदिकापर किया जाये, चाहे बाहर, वध तो समान ही है, उससे उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि यज्ञमें मारे गये पशओंको स्वर्ग मिलता है तो अपने कूटम्बियोसे यज्ञ क्यों नहीं करना चाहिए ?"
इस प्रकार यशोधरके विरोध करनेपर माता उसका अनुनय-विनय करने लगी और उसने यशोधरसे आग्रहपर्वक कहा कि यदि तुम पशवध नहीं करना चाहते तो आटेसे बने हुए मुर्गेको हो बलि दे देना और उसको मांस मानकर मेरे साथ अवश्य खाना। हिंसाका अभिप्राय ही हिंसा है
माताके आग्रहवश यशोधर मारनेके अभिप्रायसे एक आटेके बने हुए मुर्गेकी हत्या करता है और इसके फलस्वरूप उसे अनेक जन्मों में कष्ट उठाना पड़ता है। कथाके इस रूप-द्वारा ग्रन्थकारने कुछ नैतिक और धार्मिक विचारोंको व्यक्त किया है जो अहिंसाविषयक जैन दृष्टिकोणपर आकर्षक प्रकाश डालते हैं ।
जो लोग पशुबलिके विरोधो रहे हैं उनके द्वारा किसी पशुको प्रतिकृतिकी बलि देनेको परम्परा
१. पाठान्तर-प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ -मनुस्मृति ५-५६ ।