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उपासकाध्ययन
प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं प्रचक्षते ॥ ३५० ॥ द्वादशाङ्गधरोऽप्येको न ेकृच्छ्र दातुमर्हति । तस्माद्बहुश्रुताः प्राशाः प्रायश्चित्तप्रदाः स्मृताः ॥ ३५१ ॥ मनसा कर्मणा वाचा यदुष्कृतमुपार्जितम् । मनसा कर्मणा वाचा तत् तथैव विहापयेत् ॥ ३५२॥ आत्मदेशपरिस्पन्दो योगो योगविदां मतः ।
मनोवाक्कायतस्त्रेधा पुण्यपापास्नवाश्रयः ॥ ३५३॥
१५३.
प्रायश्चित्तका स्वरूप
'प्रायः' शब्दका अर्थ (साधु) लोक है। उसके मनको चित्त कहते हैं । अतः साधु लोगोंके मनको शुद्ध करनेवाले कामको प्रायश्चित्त कहते हैं ॥ ३५० ॥ प्रायश्चित्त देनेका अधिकार
द्वादशांगका पाठी होनेपर भी एक व्यक्ति प्रायश्चित्त देनेका अधिकारी नहीं है । अतः जो बहुश्रुत अनेक विद्वान् होते हैं वे ही प्रायश्चित्त देते हैं ॥ ३५१ ॥
मनके द्वारा, वचनके द्वारा अथवा कायके द्वारा जो पाप किया है उसे मनके द्वारा, वचन के द्वारा अथवा काय द्वारा ही छुड़वाना चाहिए || ३५२ ॥
योगका स्वरूप, मेद और कार्य
योगके ज्ञाता पुरुष आत्माके प्रदेशों के हलन चलनको योग कहते हैं । वह योग मन, वचन और कायके भेदसे तीन प्रकारका होता है और उसीके निमित्तसे पुण्यकर्म और पापकर्मका आस्रव होता है || ३५३ ॥
भावार्थ - जीवकाण्ड गोमट्टसारमें योगका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे मन, वचन और कायसे युक्त जीवकी जो शक्ति कमोंके ग्रहण करनेमें कारण है उसे योग कहते हैं । इस योग शक्तिके द्वारा जीव शरीर, वचन और मनके योग्य पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण करता है और उनके ग्रहण करनेसे आत्माके प्रदेशों में कम्पन होता है । यदि वह कम्पन काय-वर्गणा के निमित्तसे होता है तो उसे काययोग कहते हैं, यदि वचन वर्गणा के निमित्तसे होता है तो उसे वचनयोग कहते हैं और यदि मनोवर्गणाके निमित्तसे होता है तो मनोयोग कहते हैं । इन योगोंके होनेपर जीवके पुण्य और पाप कर्मोंका आस्रव होता है । ये तीनों योग शुभ और अशुभके मेदसे दो प्रकारके होते हैं ।
१. 'प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम् अपराधविशुद्धिरित्यर्थः । तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ६२० । भगवती आराधना ( गा० ५२९ ) की अपराजिता टीका में उद्धृत है - 'चित्तशुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्' ।। उसी गाथाकी मूलाराधना टीकामें भी उद्धृत है - ' तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमितीरितम्' । किन्तु अनगारधर्मामृत टीका ( पृ० ४९५ ) में उपासकाध्ययनवाले पाठको लिये हुए ही उद्धृत है। ' तदुक्तम् - प्रायो लोको जिनैरुक्तश्चित्तं तस्य मनो मतम् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तं निगद्यते ' ॥ ६४ ॥ - धर्मरत्ना०, पृ० ८७ पू० । २. प्रायश्चितम् । ३. 'आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगः । स निमित्तभेदेन त्रिधा भिद्यते । काययोगो वाग्योगो मनोयोग इति' । - सर्वार्थसिद्धि ६-१ ।
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