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________________ १३६ सोमदेव विरचित [कल्प २४, श्लो० २९३ मांसादिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनुशंस्थं न मत्र्येषु मधूदुम्बरसेविषु ॥२६३॥ मक्षिकामर्मसंभूतबालाण्डविनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥२६४॥ उद्भान्तार्मकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धकजीवितम् ।।२६५।। अश्वत्थोदुम्बरप्लान्यग्रोधादिफलेष्वपि । प्रत्यक्षाः प्राणिनः स्थूलाः सूक्ष्माश्चाममगोचराः॥२६॥ मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदमंत्रादिसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ॥२६॥ __ जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती। जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते । और जो मधु और उदुम्बर फलोंका भक्षण करते हैं उनमें रहम नहीं होता ॥२९३।। मधुके दोष मधु मक्खियोंके अण्डोंके निचोड़नेसे पैदा हुए मधुका, जो रज और वीर्यके मिश्रणके समान है, सज्जन पुरुष कैसे सेवन करते हैं ? ॥२९४॥ मधुका छत्ता व्याकुल शिशुके गर्भकी तरह है और अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले जन्तुओंके छोटे-छोटे अण्डोंके टुकड़ोंके जैसा है। भील लोधी वगैरह हिंसक मनुष्य उसे खाते हैं। उसमें माधुर्य कहाँसे आया ? ॥२९५॥ उदुम्बरफलकी बुराइयाँ पीपल, उदुम्बर जिसे जन्तुफल भी कहते हैं, पाकर और वट वृक्ष वगैरहके फलोंमें स्थूल जन्तु रहते हैं जो प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। इनके सिवा सूक्ष्म जन्तु भी उनमें पाये जाते हैं जो शास्त्रोंके द्वारा जाने जा सकते हैं ॥२९६॥ मद्यादिकका सेवन करनेवालोंसे बचो मद्य मांस वगैरहका सेवन करनेवाले लोगोंके घरोंमें खान-पान भी नहीं करना चाहिए । तथा उनके बरतनोंको कभी भी काममें नहीं लाना चाहिए ॥२९७॥ जो मनुष्य मद्य आदिका १. मांसमदन्तीत्येवं शीलास्तेषु मनुष्येषु । २. दयालुत्वम् । 'धर्मभावो न मर्येषु सर्वोदुम्बरसेविषु' ॥-प्रबोधसारमें उद्धृत । 'पलभुक्षु दया नास्ति न शौचं मद्यपासु च। उदुम्बराशिषु प्रोक्तो न धर्मः सौख्यदो नषु ॥१४७॥' -धर्मसं० श्रा०पृ० ११८ । ३. पंडवत्-अ० ज० । पक्षिबालकसमूहवत् । ४. माधुर्यम् । ५. 'योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेपां तद्भक्षणे हिंसा' ॥७२॥-पुरुषार्थसि० । 'सर्वोदुम्बरमध्यस्था दृश्यन्ते विविधास्त्रसाः । तथैव बहुशस्तत्र स्थावराः समयोदिताः ॥३३॥' -प्रबोधसार । ६. मद्यमांसमधुभक्षकाणां गेहेषु । ७. तेषां भाजनादिस्पर्शम् । 'मद्यादिस्वाद्यमत्रेषु पानमन्नं तु नाहरेत् । दूरतो हि विधातव्यस्तत्सम्बन्धोऽशनादिषु' ॥३४॥-प्रबोधसार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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