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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० -२२६ विविधं त्रिविधं दशविधमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः। तत्त्वश्रद्धानविधिः सर्वत्र च तत्र समवृत्तिः ॥२२६॥ सैरागवीतरागात्मविषयत्वाद्विधा स्मृतम् ।
प्रशमादिगुणं पूर्व परं चात्मविशुद्धिभाक् ॥२२७॥ यथा हि पुरुषस्य पुरुषशक्तिरियमतीन्द्रियाप्यङ्गनाजनागसंभोगेनापत्योत्पादनेन च विपदि धैर्यावलम्बनेन वा प्रारब्धवस्तुनिर्वहणेन वा निश्चेतुं शक्यते, तथात्मस्वभावतयातिसूक्ष्मयत्नमपि सम्यक्त्वरत्नं प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिफ्यैरेवे वाक्यैराकलयितुं शक्यम् । तत्र
सम्यग्दर्शनके मेद और उसकी पहचान आत्महितैषी महापुरुषोंने सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। इन सभी भेदोंमें तत्त्वोंका श्रद्धान समान रूपसे पाया जाता है। अर्थात् तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शनका सामान्य लक्षण है। अतः सम्यग्दर्शनके जितने भी भेद हैं उन सभीमें तत्त्वोंका श्रद्धान होना आवश्यक है उसके बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता ॥२२६॥
___ सम्यग्दर्शन रागी आत्माओंको भी हो सकता है और वीतरागी आत्माओंके भी होता है इसलिए उसके दो भेद कर दिये गये हैं-एक सरागसम्यग्दर्शन और दूसरा वीतरागसम्यग्दर्शन । सरागसम्यग्दर्शन प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतरागसम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता है ॥२२७॥
जैसे पुरुषको शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है, इन्द्रियोंसे उसे नहीं देखा जा सकता, फिर भी स्त्रियों के साथ संभोग करनेसे, सन्तानोत्पादनसे, विपत्तिमें धैर्य और प्रारम्भ किये गये कार्यको समाप्त करना आदि बातोंसे उसकी शक्तिका निश्चय किया जाता है। वैसे ही सम्यक्त्वरूपी रत्न भी आत्माका स्वभाव होनेके कारण यद्यपि बहुत सूक्ष्म है, फिर भी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिके द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है।
भावार्थ-सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग भेद सम्यग्दर्शनके धारक जीवोंकी अपेक्षासे किये गये हैं। जो जीव सरागी हैं उनके सम्यक्त्वको सरागसम्यक्त्व कहते हैं और जो जीव वीतरागी हैं उनके सम्यक्त्वको वीतरागसम्यक्त्व कहते हैं । चूंकि राग दसवें गुणस्थानतक पाया जाता है इसलिए दसवें गुणस्थानतकके जीवोंका सम्यक्त्व सरागसम्यक्त्व कहा जाता है और उससे आगेके जीवोंका सम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्व कहा जाता है। कोई विद्वान् सरागताका कारण सम्यक्त्व सरागसम्यक्त्व और वीतरागताका कारण सम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्व है, ऐसा कहते हैं, किन्तु उनका यह लक्षण ठीक नहीं है क्योंकि एक तो ग्रन्थकारने 'सरागवीतरागात्मविषयत्वात्' लिखकर यह स्पष्ट कर दिया है कि सराग आत्मा और वीतराग आत्माकी अपेक्षासे सम्यक्त्वके सराग और वीतराग भेद हैं। दूसरे, किसी भी शास्त्रकारने ऐसा लक्षण नहीं किया बल्कि अनगारधर्मामृत (पृ० १२४) में पं० आशाधरजीने स्पष्ट रूपसे सरागीके सम्यक्त्वको सरागसम्यक्त्व और वीतरागीके सम्यक्त्वको वीतरागसम्यक्त्व कहा है। तीसरे, सम्यग्दर्शन रागका कारण नहीं है; रागका कारण तो चारित्रमोहनीयका उदय है और वह दसवें गुणस्थानतक रहता
१. 'तद् द्विविधं सरागवीतरागविषयभेदात् । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्'-सर्वार्थसिद्धि १-२। ज्ञे सरागे सरागं स्याक्छमादिव्यक्तिलक्षणम् । विरागे दर्शनं त्वात्मशुद्धिमात्रं विरागकम् ॥५१॥ अनगार० अ० २। २. रेकवा- ज० ।