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उपासकाध्ययन तनानुगमनेन स्वामिपुत्रत्वात्प्रतिपन्नमहामुनिरूपत्वाच्चाचरिताभ्युत्थानं हस्तेनावलम्ब्य पुनः 'अतोऽतश्च प्रदेशान्मां व्यावर्तयिष्यत्ययं भगवान्' इति सहानुसरन्तमवाप्तवन्तं च गुरूपान्तम् , 'भदन्त, एष खलु महानुभावतालतालम्बनतरुः स्वभावेनैव भवभीरुभॊगानुभवने विरक्तचित्तः सर्वसंयतवृत्तार्थी भगवत्पादमूलमायातः' इति सूचयित्वा भगवतोऽभ्यणे कामकरिकदलिकावहीभारमिव मूर्धजनिकरमपनाय्य दीक्षां ग्राहयामास । सोऽपि तदुपरोधानेपाहीक्षामादाय हृदयस्याविदितवेदितव्यत्वादनङ्गप्रहग्रसितत्वाश्च पञ्जरपात्रः पैतत्रीव मन्त्रशक्तिकीलितप्रतापः पृदाकुरिव गाढबन्धनालानितो व्यालशुण्डाल इव चाहर्निशं वारिषेणऋषिणा रक्ष्यमाणोऽपि।
अलकवलयरम्यं भ्रलतानर्तकान्तं
नवनयनविलासं चारुगण्डस्थलं च । मधुरवचनगर्भ स्मेरबिम्बाधरायाः
पुरत इव समास्ते तन्मुखं मे प्रियायाः ॥१९७॥ कर्णावतंसमुखमण्डनकण्ठभूषा
वक्षोजपत्रजघनाभरणानि रागात् । पादेष्वलक्तकरसेन च चर्चनानि
कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एव धन्याः ॥१८॥ कारण पुष्पदन्त उन्हें देखकर खड़ा हो गया और उनके साथ यह सोचता हुआ चला कि वह मुझे अमुक स्थानसे लौटा देंगे।
उसे साथ लेकर वारिषेण मुनि अपने गुरु के पास आये और बोले-'भगवन् ! यह महानुभाव स्वभावसे ही संसारभीरु है तथा भोगोंके भोगसे इसका चित्त विरक्त हो गया है । महाव्रत धारण करनेकी इच्छासे यह आपके चरणों में आया है।'
वारिषेणने इतना निवेदन करनेके बाद पुष्पदन्तको गुरुके सम्मुख केशलोंच कराके जिनदीक्षा धारण करा दी । किन्तु उसका हृदय तो कामसे पीड़ित था अतः पीजरेमें बन्द पक्षीकी तरह, मंत्रकी शक्तिसे जिसका प्रताप कीलित कर दिया गया है उस सर्पकी तरह तथा मजबूत बन्धनसे बँधे हुए दुष्ट हाथीकी तरह वारिषेण मुनिके द्वारा रात-दिन देखरेख रखनेपर भी कभी वह अपनी स्त्रीके मुखका विचार करता था। 'वह केशोंसे कैसा सुन्दर लगता है और उसकी भ्रुकुटियाँ तो क्या गजब की हैं, आँखें कैसी मनोहारिणी हैं, कपोल कितने सुन्दर हैं, कैसी मीठी-मीठी बात करती है । मेरी प्यारीका मुख - तो मुझे ऐसा दीखता है मानो वह मेरे सामने ही मौजूद है' ॥१९७॥
कभी वह सोचता
'जो अपनी प्रियतमाओंके कानोंको कर्णफूलसे सजाते हैं, मुखको अलंकारोंसे भूषित करते हैं, कण्ठमें कण्ठमाल पहिनाते हैं, उरोजोंपर पत्र बाँधते हैं, जघन भागमें करधौनी धारण कराते हैं तथा पैरों में महावर लगाते हैं, वे ही धन्य हैं ॥१९८॥
१ कन्दर्पगजध्वजमिव । कावली-ब० । २. पञ्जरस्थः। ३. पक्षिवत् । ४. सर्पवत् । ५. दुष्टगजः ।