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उपासकाध्ययन श्री सोमदेव सूरि (दसवीं सदी) द्वारा विरचित संस्कृति काव्य 'यशस्तिलक चम्पू' का भारतीय वाङ्मय में एक विशिष्ट स्थान है। इसके अन्तिम तीन आश्वास (Chapters) गृहस्थ के आचार-धर्म विषयक होने से यह ग्रन्थ अलग से 'उपासकाध्ययन' नाम से नये ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है। जैन गृहस्थ (श्रावक) का धार्मिक एवं नैतिक दृष्टि से कैसा आचरण होना चाहिए-उपासकाध्ययन में इस विषय का विस्तार से उल्लेख है। विशेषता यह है कि इसमें जैनधर्म के साथ ही वैशेषिक, पाशुपत, शैव, बौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक आदि अनेक जैनेतर सम्प्रदायों के आचार विषयक धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों की विस्तार से चर्चा की गयी है। जैनधर्म-दर्शन के प्रकांड विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने बड़े परिश्रम से इसका सम्पादन-अनुवाद किया है, साथ ही एक विस्तृत प्रस्तावना (लगभग 90 पृष्ठ) लिखकर इसकी उपयोगिता बढ़ा दी है। विषय की स्पष्टता के लिए आवश्यक होने का कारण ग्रन्थ के अन्त में पंडितजी ने जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर की जीवराज ग्रन्थमाला में प्रकाशित श्री जिनदास कृत उपासकाध्ययन की संस्कृत टीका भी सम्मिलित की
इस गरिमामय ग्रन्थ का पहला संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से सन् 1964 में प्रकाशित हुआ था। और अब जैनधर्म-दर्शन के अध्येता पाठकों को समर्पित है इसका नया संस्करण नयी साजसज्जा के साथ।