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________________ सोमदेव विरचित [ कल्प १३, श्लो० - १६४ श्रूयतामत्रोपाख्यानम् - मगधदेशेषु राजगृहापरनामावसरे पञ्चशैलपुरे चेलिनी महादेवी प्रणयक्रेणिकस्य श्रेणिकस्य गोत्राकलत्रस्य पुत्रः सकलवैरिपुराभिषेणो वारिषेणो नाम । सकिल कुमारकाल एव संसारसुखसमागमविमुखमानसः परमवैराग्योद्गुर्ण: पूर्ण निर्णयरसः श्रावकधर्माराधनधन्यधिषणतया गुरूपासन संवीणतया च सम्यगवसितोपासकाध्य यनविधिराश्चर्यशौर्यनिधिरेकदा प्रेतभूमिषु भूतवासरविभावर्य रात्रिप्रतिमास्थितो बभूव । श्रावसरे क्षपायाः परिणताभोगे खलु मध्यभागे मगधसुन्दरीनामया पण्याङ्गनयारमन्यतीवासक्तचित्तवृत्तिप्रसरो मृगवेगनामा वीरः शयनतलमापन्नः सन्नेवमुक्तः - 'राजश्रेष्ठिनो धनदत्तनामनिष्ठस्य कीर्तिमतीनामायाः प्रियतमायाः स्तनमण्डनोदारमलङ्कारसारं हारमिदानी मेवानी यदि विश्राणयसि, तदा त्वं मे रतिरामः, अन्यथा प्रणयविरामः' इति । सोऽप्यवशानङ्गंवेगो मृगवेगस्तद्वचनादेव तदायतनान्निःसृत्याभिसृत्य च निजकलाबला ७६ और दूसरोंका अनिष्ट कर बैठता है, अतः ऐसे प्रसंगोंपर शान्तिसे काम लेना चाहिए । इसी तरह जो पंच होते हैं उनका उत्तरदायित्व बहुत बड़ा होता है, जरा जरा-सी बातोंपर किसीको जातिच्युत कर देना, किसीका मन्दिर बन्द कर देना धर्मकी हानिका ही कारण होता है । ऐसे समय में जब लोग धर्मसे विमुख होनेके लिए तैयार बैठे हों तब तो इस प्रकारके दण्डों का उल्टा ही परिणाम होता है । दण्डका प्रयोग औषधकी तरह करना चाहिए। जैसे वैद्य रोगी के रोग के अनुकूल दवा देकर उसे रोगमुक्त करनेकी ही चेष्टा करता है वैसे ही पञ्चोंको भी अपराधी के अपराध और उसके निदानको देख-भाल करके ही उसे ऐसा दण्ड देना चाहिए जिससे उसका सुधार हो और आगे वह वैसा अपराध न कर सके । जाति और धर्मसे बहिष्कार तो अत्यन्त गुरुतर अपराधोंके लिए ही किया जाना चाहिए। इस तरह एक ओर तो मौजूदा साधर्मी भाइयोंको बनाये रखने की चेष्टा करनी चाहिए और दूसरी ओर ऐसे नये मनुष्यों को भी धर्ममें दीक्षित करके धर्मकी वृद्धि करनी चाहिए जिनसे हमें थोड़ी-सी भी आशा हो कि ये इसमें खप सकेंगे । इस प्रकार पुराने और नये साधर्मी भाइयोंका स्थितिकरण करते रहनेसे धर्मके नष्ट हो जानेका भय नहीं रहता । इस सम्बन्धमें एक कथा है, उसे सुनें ६. स्थितिकरण अंग में प्रसिद्ध वारिषेणकी कथा मगध देशमें पञ्चशैलपुर नामका नगर है, जिसे राजगृही भी कहते हैं । उसमें राजा श्रेणिक राज्य करते थे, उनकी पट्टरानी चेलिनी थी । राजा श्रेणिकके समस्त वैरियोंके नगरोंको जीतनेवाला वारिषेण नामका पुत्र था। कुमार अवस्था से ही वह सांसारिक सुखोंसे विमुख होकर श्रावक धर्मका पालन करता था और ऐसा करनेसे तथा गुरुओंकी उपासना में संलग्न होने से उसे श्रावकाचारका अच्छा परिज्ञान हो गया था । रात्रिके समय एक दिन वह शूर-वीर स्मशान भूमिमें ध्यानमग्न था । उसी रातके मध्य में मृगवेग नामका एक वीर जब मगधसुन्दरी नामकी वेश्याके शयन कक्षमें पहुँचा तो वेश्याने कहा - ' राजश्रेष्ठी धनदत्तकी पत्नी कीर्तिमतीके गलेका हार इसी समय लाकर यदि मुझे दोगे तो तुम मेरे प्रेमके स्वामी हो, अन्यथा हमारे तुम्हारे प्रेमका आज अन्त है । ' १. ग्राहकस्य । २. उद्यतः । ३. प्रवीणतया । ४. मण्डलो - ज० । ५ ददासि । ६. कामवेगः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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