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प्रस्तावना
प्रस्तुत उपासकाध्ययन सोमदेव सूरिकृत यशस्तिलकके अन्तिम तीन आश्वास है। स्वयं सोमदेवने इन्हें उपासकाध्ययन नाम दिया है।' यशस्तिलकमें सोमदेव केवल यशोधर महाराजकी कथा न कहकर कुछ 'और' भी कहना चाहते थे। इस 'और' को समझनेके लिए यशस्तिलकको समग्र कथावस्तु तथा उसमें आये आनुषंगिक प्रसंगोंका परिचय आवश्यक है। इसी दृष्टिसे प्रस्तावनाको दो भागोंमें विभक्त किया है। पूर्वभागमें यशस्तिलकको कथावस्तु, उपासकाध्ययन तथा आनुषंगिक प्रसंगोंका विवेचन है और उत्तरभागमें उपासकाध्ययनका तुलनात्मक अध्ययन ।
पूर्वभाग [१ यशस्तिलककी कथावस्तु -
यौधेय देशमें राजपुर नामका एक सुन्दर नगर था। उसमें चण्डमहासेनका पुत्र राजा मारदत्त राज्य करता था। वह नूग, नल, नहुष, भरत, भगीरथ और भगदत्त नामके प्राचीन राजाओंसे भी पराक्रमशाली था। उसके अन्तःपुरमें आन्ध्र, चोल, केरल, सिंहल, कर्नाट, सौराष्ट्र, कम्बोज, पल्लव और कलिंग देशको सुन्दरियोंका निवास था।
एक दिन वीरभैरव नामके कुलाचार्यने उससे कहा, "राजन्, तुम्हारी राजधानीमें जो चण्डमारीदेवीका मन्दिर है, उसमें यदि देवीके सामने सब प्रकारके प्राणियोंकी बलि दी जाये और समस्त लक्षणोंसे युक्त मनुष्य-युगलका वध तुम स्वयं अपने हाथसे करो तो तुम्हें विद्याधरोंके लोकको विजय करनेवाली तलवारकी सिद्धि प्राप्त हो सकती है।" यह सुनकर मारदत्त राजाने असमयमें ही महानवमीको पूजाके बहानेसे समस्त जनताको मन्दिरमें बुलवाया और देवीके पादपीठके निकट बैठकर अपने रक्षक अनुचरोंको सब लक्षणोंसे युक्त मनुष्य-युगल खोजकर लानेका आदेश दिया।
चण्डमारीका मन्दिर बड़ा भयानक था। उसे देखकर स्वयं मृत्यु भो भयभीत होती थी। उसका परिसर प्रलयकालको रात्रिकी तरह भयानक महायोगिनियोंसे भरा हुआ था और मन्धभक्तोंका झुण्ड विविध प्रकारकी आत्मयन्त्रणाओंमें संलग्न था। कहीं साधक अपने सिरोंपर गुग्गुल जला रहे थे, कहीं अपनी शिराओं. को दीपककी तरह जलाते थे, कहीं रुद्रको प्रसन्न करनेके लिए अपना रुधिरपान करते थे, कहीं कापालिक अपने शरीरसे मांस काटकर बेचते थे, कहीं अपनी आंतें निकालकर मातृकाओंको प्रसन्न करते थे और कहीं अग्निमें अपने मांसकी आहुति देते थे।
इसी समय सुदत्त नामके जैनाचार्य मुनिसंघके साथ राजपुर पधारे । नगरके बाहर एक सुन्दर उद्यान , था, वहाँ सुन्दरियोंके साथ युवा पुरुष क्रोडामें मग्न थे। ऐसे स्थानको मुनियोंके आवासके अयोग्य जानकर सुदत्ताचार्य आगे बढ़ गये। आगे श्मशान भूमि थी। उससे आगे एक पर्वत था। उसीपर वह ठहर गये और मध्यकालीन कृतिकर्मसे निवृत्त होकर उन्होंने साधुओंको निकटवर्ती ग्रामों में गोचरी करनेका आदेश दिया।
उन साधुओंमें दो मुनिकुमार भी थे। एकका नाम अभयरुचि था और दूसरेका नाम अभयमती। दोनों सहोदर भाई-बहन थे और यशोधर महाराजके पुत्र यशोमतीकी रानी कुसुमावलोके गर्भसे दोनों यमज उत्पन्न हुए थे। कुसुमावली राजा मारदत्तकी बहन थी। दोनोंने कुमार अवस्थामें ही क्षुल्लकके व्रत रहण
१. इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य ।
इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥ यश०, आश्वास पाँच।