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उपासकाध्ययन तत्कुदृष्टयन्तरोद्भूतामिहामुत्र च संभवाम् ।
सम्यग्दर्शनशुद्ध यर्थमाकांक्षां त्रिविधां त्यजेत् ॥१६२॥ श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-अङ्गमण्डलेषु समस्तसपत्नसमरसमारम्भनिष्प्रकम्पायां चम्पायां पुरि लक्ष्मीमतिमहादेवीदयितस्य वसुवर्धनाभिधानोचितस्य वसुधापतेर्निरवशे - षवैदेहकवरिष्ठः किल प्रियदत्तश्रेष्ठी धर्मपत्न्या गृहलक्ष्मीसपत्न्या सकलस्त्रैणगुणधाम्नाङ्गवतीनाम्ना सहाहाय प्राढेऽष्टाह्रीक्रियाकाण्डकरणाया_कषकूटकोटिघटितपताकापटप्रतानाञ्चलजालस्खलितनिलिम्पविमानवलयं सहस्रकूटचैत्यालयं यियासुः स्वकीयसुतावयस्या
अतः सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिए अन्य मिथ्या मतोंके सम्बन्धसे उत्पन्न होने वाली, तथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी तीन प्रकारकी इच्छाओंको छोड़ देना चाहिए ॥१६२॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शनका दूसरा अंग है निःकांक्षित । जिसका अर्थ है-'कांक्षा मत करो।' और कांक्षा कहते हैं भोगोंकी चाहको । जो विषय इन्द्रियोंको नहीं रुचते, उनसे द्वेष करना ही भागोंकी चाहकी पहचान है, क्योंकि इन्द्रियोंको रुचनेवाले विषयोंकी चाहके कारण ही न रुचनेवाले विषयोंसे द्वेष होता है। देखा जाता है कि विपक्षसे द्वेष हुए बिना पक्षमें राग नहीं होता और पक्षमें राग हुए बिना उसके विपक्षसे द्वेष नहीं होता। अतः इष्ट भोगोंकी चाहके कारण ही अनिष्ट भोगोंसे द्वेष होता है और अनिष्ट भोगोंसे द्वेष होनेसे ही इष्ट भोगोंकी चाह होती है। जिसके इस प्रकारकी चाह है वह नियमसे मिथ्यादृष्टि है; क्योंकि एक तो चाह करनेसे ही भोगोंकी प्राप्ति नहीं हो जाती। दूसरे, कोंके उदयसे प्राप्त होनेवाली प्रत्येक वस्तु अनिष्ट ही मानी जाती है। इसलिए ज्ञानी पुरुष कर्म और उसके फलकी चाह बिल्कुल नहीं करता। तीसरे, पदार्थोंमें जो इष्ट और अनिष्ट बुद्धि की जाती है वह सब दृष्टिका ही दोष है, क्योंकि पदार्थ न तो स्वयं इष्ट ही होते हैं और न स्वयं अनिष्ट ही होते हैं। यदि पदार्थ स्वयं इष्ट या अनिष्ट होते तो प्रत्येक पदार्थ सभीको इष्ट या अनिष्ट होना चाहिए था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। एक ही पदार्थ किसीको इष्ट और किसीको अनिष्ट प्रतीत होता है। अतः पदार्थोंमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि भी मिथ्यात्वके उदयसे ही होती है। जिसके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता उसकी दृष्टि वस्तुके यथार्थस्वरूपको देखती है और यथार्थमें कर्मों के द्वारा प्राप्त होनेवाला फल अनिष्ट ही होता है क्योंकि वह दुःखका कारण है । अतः सम्यग्दृष्टि कर्मोके द्वारा प्राप्त होने वाले भोगोंकी चाह नहीं करता।
२. निष्कांक्षित अंगमें प्रसिद्ध अनन्तमतिकी कथा ... अब इस विषयमें एक कथा कहते हैं, उसे सुनिए
अंगदेशकी चम्पा नगरीमें वसुवर्धन नामका राजा राज्य करता था। उसकी पट्टरानीका नाम लक्ष्मीमति था । राज्य श्रेष्ठी प्रियदत्त था और उसकी पत्नी अंगवती थी । एक बार एकदम प्रातः अप्टाहिका पर्वका क्रियाकर्म करनेके लिए प्रियदत्त सेठ स्त्रियोचित सकल गुणोंसे युक्त अपनी
१. मिथ्यादर्शनोद्भूताम् । २. देव-यक्ष-राजोद्भवाम् । ४. शीघ्रम् । ५. संयोजित । ६. सखीम् ।
३. समग्रवणिजां मध्ये श्रेष्ठः ।