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सोमदेव विरचित
[ कल्प ५, श्लो० १५१
कदाचिदस्तमस्तकोत्तंसतपनातपनिचये संध्यासमये मदसेखीमलिनकपोलपालीनिलीनालिकुलालिख्यमानमुखपटाभोगभङ्गीप्रस रानीलगिरिकुञ्जरात्स्वच्छन्दतोऽभिमुख मागच्छतो निवृत्त्य श्रीधर्माचार्योच्चार्यमाणधर्मश्रवणोचितं नित्यमण्डितं नाम चैत्यालयमासादयामासतुः ।
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तत्र च 'धन्वन्तरे, यदि सीधुपिशितोपदंशप्रमुखानि संसारसुखानि स्वेच्छयानुभवि - तुमिच्छसि तदाऽवश्यममीषामम्बराम्बरावृत्तवपुषां धर्मो न श्रोतव्यः' इत्यभिधाय पिधाय च श्रवणयुगलमतिनिर्भरं प्रमोलावलम्बिलोचनायामो विश्वानुलोमः सुष्वाप । धन्वन्तरिस्तु 'प्राणिना हि नियमेन किमप्यचलितात्मतया व्रतमुपात्तं भवति उदर्केऽवश्यं स्वःश्रेयसनिमित्तम्' इति प्रस्तावायातमाचार्योदितमुपश्रुत्य, प्रणिपत्य च 'यद्येवं तर्हि भगवन् श्रयमपि जनोऽनुगृह्यतां कस्यापि व्रतस्य प्रदानेन' इत्यवोचत्। तदनु 'ततः सूरेः खलतिविलोकनात्त्वयात्तव्यम्' इति व्रतेन कुलालालब्धनिधानः पयः पूराविष्टपिष्टशकटपरित्यागाद्विगतोरपुर नामक नगर में आये । वहाँ के राजाका नाम वीरनरेश्वर था और उसकी पट्टरानी वीरमणी थी । तथा यमदण्ड वहाँका कोतवाल था ।
एक दिन सन्ध्याके समय सूरजके डूब जानेपर वे दोनों घूमने निकले । सामनेसे . नीलगिरिके समान एक मदोन्मत्त हाथीको स्वच्छन्दताके साथ सन्मुख आता हुआ देखकर दोनों एक नित्यमण्डित नामके चैत्यालय में घुस गये । वहाँ धर्माचार्य धर्मका उपदेश कर रहे थे ।
विश्वानुलोमने धन्वन्तरिसे कहा - 'धन्वन्तरि ! यदि संसारके मंदिरा, माँस, व्यञ्जन आदि सुखोंको यथेच्छ भोगना चाहते हो तो इन दिगम्बर साधुओंका धर्म मत सुनो।' ऐसा कहकर दोनों कानोंको बन्द करके और आँखोंको मीचकर विश्वानुलोम सो गया । उधर आचार्य कह रहे थे कि यदि प्राणी दृढ़ता के साथ नियम पूर्वक किसी भी व्रतका पालन करे तो उत्तरकालमें वह व्रत अवश्य ही उसका कल्याण करता है । यह सुनकर आचार्यको नमस्कार करके धन्वन्तरि बोला- 'भगवान् ! यदि ऐसा है तो इस दासको भी कोई व्रत देनेकी कृपा करें ।'
आचार्यने उसकी स्थिति को समझकर कहा - 'तुम प्रतिदिन घुटे सिर व्यक्तिका दर्शन करके भोजन किया करो ।' धन्वन्तरिने इस व्रतको सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
एक दिन जैसे ही वह भोजन करनेके लिए बैठा, उसे अपने नियमकी याद आई, उस दिन वह घुटे सिर व्यक्तिका दर्शन करना भूल गया था । अतः उसने भोजन नहीं किया और घुटे सिर व्यक्तिकी खोज में चल दिया। उसके पड़ोसी एक कुम्हारने उसी दिन सिर घुटवाया था, किन्तु वह मिट्टी लेनेके लिए बाहर चला गया था, धन्वन्तरि उसकी खोजमें चल दिया । जब वह कुम्हार के पास पहुँचा तो कुम्हार उसे देखकर घबरा गया । कुम्हारको उस दिन मिट्टी खोदते हुए एक घड़ा मिला था उसमें धन था । जब धन्वन्तरि कुम्हारको देखकर तुरन्त ही लौट गया तो कुम्हारको सन्देह हुआ कि उसने मुझे जमीनसे घड़ा निकालते हुए देख लिया है और अब वह कहीं राजासे मेरी शिकायत न कर दे । अतः उसे धनका आधा भाग देकर राजी कर लेना चाहिए । राजा तो सब धन ले लेगा । यह सोचकर कुम्हार धनका घड़ा सिरपर रखकर धन्वन्तरि के पीछे-पीछे हो लिया । और उसके घर पहुँचकर उसने वह घड़ा उसके सामने रखकर सब हाल
१. मदमषी - आ० । मदपक्षी - मु० । २. निरर्भप्र-आ० । ३. निद्रा । ४. - वं सूरे त-आ० । ५. भोक्तव्यम् ।