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सोमदेव विरचित
[श्लो० ७६___'संबन्धो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तरद्रव्यत्वात्, 'द्रव्ययोरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः । 'समवायलक्षणोऽपि न संबन्धः शक्तः पृथक्सिद्धत्वात्, 'अयुतसिद्धानां गुणगुण्यादीनां समवायसंबन्धः' इति वैशेषिकमैतिह्यम् ।
तत्त्वभावनयोद्भूतं जन्मान्तरसमुत्थया। हिताहितविवेकाय यस्य ज्ञानत्रयं परम् ॥७॥ दृष्टादृष्टमवैत्यर्थ रूपवन्तमथावधेः।
श्रुतेः श्रुतिसमाश्रेयं वासौ परमपेक्षताम् ॥८०॥ सदाशिवका शक्तिके साथ संयोग सम्बन्ध तो हो नहीं सकता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं है और 'संयोग सम्बन्ध द्रव्योंका ही होता है' ऐसा यौगोंका सिद्धान्त है। तथा समवाय सम्बन्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि शक्ति तो शिवसे पृथक् सिद्ध है-जुदी है और 'जो पृथक सिद्ध नहीं हैं ऐसे गुण गुणी वगैरहका ही समवाय सम्बन्ध होता है' ऐसा वैशेषिकोंका मत है।
भावार्थ-ऊपर शैवमतवादियोंने मनुष्यको आप्त मानने में आपत्ति दिखलाते हुए सदाशिवको ही आप्त और शास्त्रका उपदेष्टा माननेपर जोर दिया था। उसीका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि सदाशिव तो अशरीरी है इसलिए वे वक्ता हो नहीं सकते, क्योंकि बोलनेके लिए शरीरका होना जरूरी है उनके विना शब्दकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि सशरीरी शिवको वक्ता माना जायेगा तो वह रागी हैं, पार्वतीके साथ रहते हैं, अर्धनारीश्वर हैं, अतः उनका वचन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। यदि किसी तीसरेको वक्ता माना जायेगा तो प्रश्न होता है कि वह तीसरा कहाँ से उत्पन्न हुआ। यदि कहा जायेगा कि शक्तिसे उत्पन्न हुआ तो शक्तिके साथ उसका सम्बन्ध बतलाना चाहिये। दो ही सम्बन्ध योग दर्शनमें माने गये हैं संयोग और समवाय । ये दोनों ही सम्बन्ध शक्ति और शक्तिमान्के बीच नहीं बनते; क्योंकि संयोग दो द्रव्योंमें ही होता है किन्तु शक्ति द्रव्य नहीं है। तथा समवाय सम्बन्ध अभिन्नोंमें ही होता है किन्तु शक्ति शक्तिमान्से भिन्न है।
[इस प्रकार सदाशिववादियोंके शास्त्रको निराधार बतलाकर ग्रन्थकार, मनुष्यको प्राप्त मानने में जो आपत्ति की गई है, उनका निराकरण करते हैं-]
पूर्वजन्ममें उत्पन्न हुई तत्त्व भावनासे, हित और अहितकी पहचान करनेके लिए उत्पन्न हुए जिसके तीन ज्ञान-मति, श्रुत और अवधि-दृष्ट और अदृष्ट अर्थको जानते हैं, उनमें भी अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थोंको ही जानता है और श्रुतज्ञान शास्त्रमें वर्णित विषयोंको जानता है । ऐसी अवस्थामें इष्ट तत्त्वको जाननेके लिए उसे दूसरेकी अपेक्षा ही क्या रहती है ? ॥७९-८०॥
भावार्थ-पहले शैवमतवादीने मनुष्यको आप्त माननेमें आपत्ति करते हुए कहा था कि मनुष्यको इष्ट तत्त्वका बोध यदि तीर्थङ्करके द्वारा होता है तो तीर्थङ्करको इष्ट तत्वका ज्ञान किसके द्वारा होता है ? इसका परिहार करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि तीर्थङ्करके जन्मसे ही तीन ज्ञान होते हैं। और वे तीनों ज्ञान पूर्व जन्मकी भावनासे उत्पन्न होते हैं, उनसे वह इष्ट तत्त्वको जान लेते हैं। बादमें मुनि होकर तपस्याके द्वारा कर्मोको नष्ट करके वे सर्वज्ञ हो
१. 'अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेदर प्रत्ययलिंगो यः संबन्धः स समवायः ।' प्रशस्तपाद भाष्य पृ० १४ ।-आप्तपरीक्षा पृ० १०६ ।