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________________ उपासकाध्ययन -२६] सर्व चेतसि भासेत वस्तु भावनया स्फुटम् । तावन्मात्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्याद्विप्रेलम्भिनाम् ॥२६॥ तदुक्तम् "पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रनिर्भये । मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम्" ॥२७॥ स्वभावान्तरसंभूतिर्यत्र तत्र मलक्षयः । कतुं शक्यः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफलेष्विव ॥२८॥ "तदहर्जस्तनेहातो रक्षोडष्टर्भवस्मृतेः। भूतानन्बयनाजीवः प्रकृतिशः सनातनः" ॥२६॥ [पहले नैरात्म्य भावनासे मुक्ति माननेवाले एक मतका उल्लेख कर आये हैं, उसको पालोचना करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-] ६. भावनासे सभी वस्तु चित्तमें स्पष्ट रूपसे झलकने लगती है। यदि केवल उतनेसे ही मुक्ति प्राप्त होती है तो ठगोंकी भी मुक्ति हो जायेगी ॥२६॥ कहा भी है "सब ओरसे बन्द जेलखानेमें अत्यन्त घोर अन्धकारके होते हुए और मेरे आँख बन्द कर लेनेपर भी मुझे अपनी प्रियाका मुख दिखाई दिया" ॥२७॥ भावार्थ-आशय यह है कि भावना जैसी भाई जाती है वैसी ही वस्तु दिखाई देने लगती है । अतः केवल भावनाके बलपर यथार्थ वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो सकती। [इस प्रकार नैरात्म्य भावनावादीको उत्तर देकर आचार्य जैमिनिके मतको आलोचना करते हैं। जैमिनिका कहना है कि स्वभावसे ही कलुषित चित्तकी विशुद्धि नहीं हो सकती। इसका उत्तर देते हुए प्राचार्य कहते हैं-]. ___७. जिस वस्तुमें स्वभावान्तर हो सकता है, उसमें अपने कारणोंसे मलका क्षय किया जा सकता है, जैसा कि मणि और मोतियोंमें देखा जाता है। अर्थात् मणि मोती वगैरह जन्मसे ही सुमैल पैदा होते हैं किन्तु बादको उनका मैल दूर करके उन्हें चमकदार बना लिया जाता है। इसी तरह अनादिसे मलिन आत्मासे भी कर्म जन्य मलिनताको हटाकर उसे विशुद्ध किया जा सकता है ॥२८॥ [अब आत्मा और परलोकको न माननेवाले चार्वाकोंको उत्तर देते हुए प्राचार्य कहते हैं-] ८. उसी दिनका पैदा हुआ बच्चा माताके स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता है, राक्षस वगैरह देखे जाते हैं, किसी-किसीको पूर्व जन्मका स्मरण भी हो जाता है, तथा आत्मामें पञ्च भूतोंका कोई भी धर्म नहीं पाया जाता । इन बातोंसे प्रकृतिका ज्ञाता जीव सनातन सिद्ध होता है ॥२९॥ भावार्थ-आशय यह है कि चार्वाक आत्माको एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । उसका कहना है कि जैसे कई चीजोंके मिलानेसे शराब बन जाती है और उसमें मादकता उत्पन्न हो जाती है, उसी तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है या प्रकट हो जाती है, उसे ही आत्मा कह देते हैं। जब वे पाँचों भूत बिछुड़ जाते हैं तो वह शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः पञ्चभूतोंके सिवा आत्मा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। १. वञ्चकानाम् । २. प्रमेयरत्नमाला (पृ० ६१)में उद्धृत। ३. प्रमेयरत्नमाला (पृ०१८१)में उद्धृत।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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