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उपासकाध्ययन
ऐलककी विधि वही है जो ऊपर दूसरे श्रावककी विधि बतलायो है।
उक्त ग्यारह भेदोंमें से प्रारम्भके छह भेदवाले जघन्य श्रावक कहे जाते हैं और उनकी गृहस्थ संज्ञा होती है। सात, आठ और नौ भेदवाले मध्यम श्रावक होते हैं और उन्हें वर्णी कहते हैं। शेष दो प्रतिमावाले श्रावक उत्कृष्ट श्रावक होते हैं और उन्हें भिक्षु कहते हैं ।
साधक
उपसर्ग आनेपर, दुर्भिक्ष पड़नेपर, बुढ़ापा आनेपर या असाध्य रोग हो जानेपर जब जीवनको कोई आशा न रहे तो धर्मको रक्षाके लिए शरीरको छोड़ देना सल्लेखना है और जो उसका साधन करता है वह साधक कहलाता है। रत्नकरण्डश्रावकाचारके अनुसार ही सोमदेव उपासकाध्ययनमें भी सल्लेखनाका वर्णन है। सागारधर्मामृतके आठवें अध्यायमें सल्लेखनाका विस्तृत वर्णन है ।
इस तरह श्रावकाचारके मुख्य-मुख्य गुणोंका कालक्रमसे यह विश्लेषण किया गया है, जो स्वाध्यायप्रेमियों, तत्त्वचिन्तकों, अन्वेषकों और आचारप्रेमियोंके लिए विचारको और खोजको सामग्री प्रस्तुत करता है।
उपसंहार सोमदेवका उपासकाध्ययन हिन्दी अनुवाद आदिके साथ प्रथम बार प्रकाशित हो रहा है और श्रावकाचारविषयक जैन साहित्यमें उसका अपना एक विशिष्ट स्थान है, इसीसे इस प्रस्तावनामें उसके अन्तर्गत विषयोंपर प्रकाश डालने के साथ श्रावकाचारपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है। किसी भी विषयके परिपूर्ण परिचयके लिए उस विषयके साहित्यका तुलनात्मक अनुशीलन आवश्यक होता है। उससे मल विचार के प्रारम्भिक रूपका और उसमें कालक्रमसे होनेवाले विकासका पूर्ण परिचय मिल जाता है। यही विश्लेपण की आधुनिक पद्धति है।
श्रेष्ठ साहित्य जिस विषय और परम्परासे सम्बद्ध होता है उस विषय और परम्पराका तो प्रतिनिधित्व करता ही है जिस कालमें वह रचा जाता है उस कालका भी वह प्रतिनिधित्व करता है । अतः जहाँ उससे विषय और परम्पराका सम्यग्बोध होता है वहां तत्कालीन सामायिक स्थितिका भी बोध होता है। उसके बिना विषयगत बोध अधूरा ही रहता है। यही वे दृष्टियाँ हैं जिनको लक्ष्यमें रखकर प्रस्तावनामें विविध चर्चाएँ की गयी हैं । दृष्टि दोषसे उनमें चित्त स्खलन भी हो सकता है उसके लिए ज्ञानियोंसे क्षमा प्रार्थना है।
ऋषमनिर्वाण दिवस । वी०नि० सं० २४८९ ।
-कैलाशचन्द्र शास्त्री