________________
[ ६१ ] छाया-प्रतिदेशसमयपुद्गलायुः परिणामनामकालस्थम् ।
'गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीवः ॥३५॥ अर्थ-इस जीव ने इस अनन्त संसार समुद्र में लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में,
समय में, पुद्गल परमाणु में, आयु में, रागद्वषादि परिणाम में, गति जाति आदि नामकर्म के भेदों में, उत्सर्पिणी आदि काल में स्थित अनन्त शरीरों को अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा ॥३५॥
गाथा-तेयाला तिएिणसया रज्जूणं लोयखेत्तपरिमाणं । _ मुत्तूण? पएसा जत्थ ण दुरूढुल्लिओ जीवो ॥ ३६॥ छाया-त्रिचत्वारिंशत् त्रीणि शतानि रज्जूनां लोकक्षेत्रपरिमाणम् ।
मुक्त्वा ऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥३६॥ अर्थ-३४३ राजू प्रमाण लोकक्षेत्र में मेरू के नीचे आठ प्रदेशों को छोड़कर ऐसा
कोई प्रदेश नहीं है जहां यह जीव त्पन्न नहीं हुआ अथवा मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ ॥३६।।
गाथा-एक्केकेंगुलि वाही छण्णवदी होति जाण मणुयाणं ।
अवसे ते य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया ॥३७|| छाया-एकैकांगुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानीहि मनुष्याणाम् ।
अवशेषे च शरीरे रोगाः भरण कियन्तः भणिताः ॥३०॥ थ-मनुष्यों के शरीर में एक-एक अंगुल प्रदेश में '६६-६६ रोग होते हैं । तो
बताओ शेष समस्त शरीर में कितने रोग कहे जा सकते हैं, हे जीव ! तू इसको भली प्रकार जान ॥३७॥
गाथा- ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुत्वभवे ।
एवं सहसि महाजस किंवा बहुएहिं लविएहिं ॥३८॥ छाया- ते रोगा अपि च सकलाः सोढास्त्वया परवशेण पूर्वभवे ।
एवं सहसे महायशः ! किंवा बहुभिः लपितैः ॥ ३८ ॥ अर्थ- हे महायश के धारक मुनि ! तू ने वे पहले कहे हुए सब रोग पूर्व भव में
कर्मों के आधीन होकर सहे, और अब तू उनको इस प्रकार सहता है ।