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गाथा- पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ ।
भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ॥ १४ ॥ छाया- पार्श्वस्थभावनाः अनादिकालं अनेकवारान् ।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभावबीजैः ॥ १४ ॥ अर्थ- हे जोव ! तूने अनादिकाल से अनन्त बार पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न
और मृगचारी आदि भावनाओं का चिन्तवन करके खोटी भावनाओं के परिणामरूप बीजों से बहुत दुःख पाया ॥ १४ ॥
गाथा- देवाण गुण विहूई इड्ढी माहप्प बहुविहं दह्र ।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमाणसं दुक्खं ॥ १५॥ . छाया- देवानां गुणान् विभूतीः ऋद्धीः माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट वा।
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम् ॥१५॥ अर्थ- हे जीव ! तूने नीच देव होकर अन्य बड़ी ऋद्धि वाले देवों के गुण
(अणिमादि), विभूति (धनादि ), और ऋद्धि (इन्द्राणी आदि ) की
महिमा को बहुत प्रकार देख कर बहुत अधिक मानसिक दुःख पाया ॥१५॥ गाथा-च उविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो ।
होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेयवाराओ ॥१६॥ छाया- चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशुभभावप्रकटार्थः।
. भत्त्वा कुदेवत्त्वं प्राप्तः असि अनेकवारान् ॥ १६ ॥ अर्थ-- हे जीव ! तू चार प्रकार की विकथाओं (स्त्री, भोजन, राज, चोर ) में
आसक्त होकर, आठ मदों से उन्मत्त होकर, और अशुभ भावनाओं का प्रयोजन धारण करके अनेक बार भवनवासी आदि नीच देवों में उत्पन्न हुआ ॥ १६॥
गाथा-असुहीबीहत्त्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि ।
वसिओसि चिरं फालं अणेयजणणीण मुणिपवर ॥ १७ ॥ छाया- अशुचिबीभत्सासु च कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु ।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेक जननीनां मुनिप्रवर !॥ १७॥