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[ ४६ ] ' छाया-शत्रौ मित्रे च समा प्रशंसा निन्दा अलब्धिलब्धिसमा।
तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४७॥ अर्थ-जहां शत्रु और मित्र में, प्रशंसा और निन्दा में, लाभ और हानि में तथा
तिनके और सोने में समानभाव रहता है, ऐसी दीक्षा कही गई है।
गाथा- उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा ।
सव्वत्थगिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ४८ ॥ छाया- उत्तममध्यमगेहे दरिद्र ईश्वरे च निरपेक्षा ।
सर्वत्र गृहीतपिंडा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४८॥ अर्थ- जहां उत्तम और मध्यम घर में, दरिद्र और धनवान में कोई भेद नहीं है,
तथा सब जगह समानभाव से आहार ग्रहण किया जाता है, ऐसी जिन दीक्षा कही गई है ॥४८॥
गाथा- णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिहोसा।
___णिम्मम पिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४६॥ छाया- निर्ग्रन्था निःसंगा निर्मानाशा अरागा निषा ।
निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईदृशी भणि।ता ॥ ४६ ।। अर्थ- जो परिग्रह रहित है, स्त्री आदि पर पदार्थ के सम्बन्ध से रहित है, मान .. कषाय और भोगों की आशा से रहित है, राग रहित है, द्वेष रहित है,
मोहरहित और अहंकार रहित है ऐसी जिन दीक्षा कही गई है ॥४६॥
गाथा-णिगणेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिकलुसा । .
णिब्भय णिरासभावा पव्वजा एरिसा भणिया ॥ ५० ॥ छाया-निःस्नेहा निर्लोभा, निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा ।
... निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ५० ॥ अर्थ- जो पर पदार्थों में राग रहित, लोभरहित, मोहभाव रहित, विकार रहित,
मलिनता रहित, भय रहित और आशा के भावों से रहित है ऐसी जिन दीक्षा कही गई है ॥५०॥