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गाथा - दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अमरण उद्दिट्ठ देसविरदो य ।। २२ ।।
छाया - दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचित्तं रात्रिभुक्तिश्च । ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्टः देशविरतश्च ।। २२ ।। अर्थ — दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग, उद्दिष्टत्याग इस प्रकार ये देशविरत के ११ भेद हैं । इन्हें ११ प्रतिमा भी कहते हैं ॥ २२ ॥ भावार्थ - अब ग्यारह प्रतिमाओं का भिन्न २ स्वरूप संक्षेप से कहते हैं:
(४) अष्टमी चतुर्दशी
(१) शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित अष्टमूल गुणों का धारण करना सो दर्शनप्रतिमा है । (२) अतीचार रहित ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षा. व्रतों को पालना सो व्रतप्रतिमा है । (३) तीनों का विधिपूर्वक निरतिचार सामायिक करना सो सामायिक प्रतिमा है । आदि पर्व दिनों में कषायादि का त्याग करना सो प्रोषत्र पवास प्रतिमा है । (५) कच्चे फल फूल वनस्पति आदि के खाने का त्याग करना सो सचित्तत्याग प्रतिमा है । (६) रात्रि में सब प्रकार के आहार का त्याग करना सो रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा है । (७) मन वचन काय से स्त्रीमात्र का त्याग करना सो ब्रह्मचर्य प्रतिमा है । ( 5 ) खेतो व्यापार आदि आरंभ क्रियाओं का त्याग करना सो आरंभत्याग प्रतिमा है । (६) धनधान्यादि परिग्रह से विरक्त होना सो परिग्रहत्याग प्रतिमा है । (१०) खेती व्यापारादि तथा विवाहादि लौकिक कार्यों में अनुमति न देना सो अनुमतित्याग प्रतिमा है । (११) वन में तप करते हुए रहना, भिक्षावृत्ति से आहार लेना, और खण्डवस्त्र धारण करना सो उद्दित्याग प्रतिमा है ।
गाथा - पंचे वरणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिरिए ।
सिक्खावय चत्तारिय संजमचरणं च सायारं ॥ २३ ॥
छाया - पंचैव अणुव्रतानि गुणव्रतानिभवन्ति तथा त्रीणि । शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारं ।। २३ ।।
अर्थ - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस तरह यह १२ प्रकार का सागार अर्थात् श्रावकों का संयमचरण चारित्र कहलाता है ।। २३ ।।