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[ ४ ] गाथा-जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होई ।
तह जिणदसण मूलो णिहिट्ठो मोक्खमग्गस्स ॥११॥ छाया-यथा मूलात् स्कन्धः शाखापरिवारः बहुगुणः भवति ।
___ तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य ॥११॥ अर्थ-जैसे वृक्ष की जड़ से शाखा, पत्र, फल, फूल आदि बहुत गुण वाला स्कन्ध
उत्पन्न होता है, वैसे ही मोक्षमार्ग का मूल कारण जिन धर्म का श्रद्धान है, ऐसा गणधरादि देवों ने कहा है। ॥ ११ ॥
गाथा-जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दसणधराणं ।
ते होति लल्लमूत्रा बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥ १२ ॥ छाया-ये दर्शनेषु भ्रष्टाः पादयोः पातयन्ति दर्शनधरान् ।
ते भवन्ति लल्लमूकाः बोधिः पुनः दुर्लभा तेषाम् ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि पुरुष सम्यग्दृष्टि जीवों को अपने चरणों में नमस्कार कराते
हैं, वे परभव में लूले और गंगे होते हैं। उनको रत्नत्रय प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। ॥ १२॥
गाथा-जेवि पडंति च तेसिं जाणंता लजगारवभयेण ।
तेसि पि णस्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥ १३ ।। छाया-येऽपि पतन्ति च तेषां जानन्तः लज्जागारवभयेन ।
तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम् ॥ १३ ॥ अर्थ-दर्शन को धारण करने वाले जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट पुरुषों को मिथ्या दृष्टि
जानते हुए भी लज्जा, गौरव और भय के कारण नमस्कार करते हैं, वे भी पाप की अनुमोदना करने के कारण रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते हैं ॥ १३ ॥
गाथा-दुविहं पि गंथचायं तीसुवि जोयेसुसंजमो ठादि ।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दसणं होई ॥ १४ ॥ छाया-द्विविधः अपिग्रन्थत्यागः त्रिषु अपि योगेषु संयमः तिष्ठति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ॥ १४ ॥ अर्थ--जहां बाह्य और अन्तरङ्ग दोनों प्रकार की परिग्रह का त्याग होता है, शुद्ध
मन, वचन, काय से संयम पाला जाता है, कृत, कारित व अनुमोदना से