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प्रकरण के अन्तिम भाग में परिवर्तित हो गई मालूम होती है ।
सम्यज्ञान
'अष्टपाहुड' में ८ प्रकरण हैं, इसका विषय मुक्ति प्राप्ति करने के दृष्टिको से जीवन का क्रम निश्चित करना है । जैनधर्म ईश्वर को सृष्टि रचयिता तथा उद्धारक नहीं मानता । आत्मा अपने भाग्य का स्वयं विधाता है, किन्तु जिन्होंन मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया है उनकी वन्दना करता है। सम्यक दर्शन, और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति से ( जिन्हें रत्नत्रय भी बोलते हैं । मुक्ति होती है। प्रथम प्रकरण में दर्शन तथा तीसरे मं चारित्र का वर्णन है। सातवें और आठवें प्रकरण का सम्बन्ध भी चारित्र से ही है । दूसरे, चौथे और पाँचवें प्रकरण का विषय प्रायः ज्ञान ही है । छटे में अन्तिम फल अथवा मुक्ति का वर्णन है । तीनों रत्न एक दूसरे से बिल्कुल असम्बन्ध नहीं हैं । दर्शन ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति और वृद्धि साथ ही साथ होती है। ये एक दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं । ( अ० १-गा० १५, १६ तथा अ० ३ गाथा १. २ ) प्रत्येक प्रकरण में बहुत सा विषय एकसा है और उसमें आवृत्ति तथा पुनरावृत्ति का संयोग है ।
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आत्मोन्नति के लिए सबसे प्रथम सम्यक दर्शन तथा सत्य श्रद्धान आवश्यक है । व्यावहारिक दृष्टिकोण से सम्यक् दर्शन की परिभाषा जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट खात तत्वों की सत्ता में पूर्ण विश्वास रखना है । निश्चय दृष्टिकोण से इसका अर्थ आत्मानुभव है। इसलिए जैन धर्म का केन्द्रीय सिद्धान्त श्रात्म विचार है, बाकी सब धर्म सिद्धान्त इसी के पीछे हैं। यह बात सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रकट नहीं करती, परन्तु इसके तार्किक प्रदर्शन को सुगम बनाती है । एक तार्किक यह तर्क कर सकता है कि यह तो प्रश्न का उत्तर पहले से ही निश्चित कर लेना हैं। पर, जैसा कि पहले ही कहा है कि यह प्रश्न वास्तव में प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभव का है, जो भाषा और तर्क के अतीत है। तर्क शास्त्र इस विषय में एक निश्चित सीमा तक ही सम्बन्ध रखता है जो अपेक्षित क्षेत्र में है, इसी कारण एक महान् विचारक ने कहा है कि जैन तक स्पष्ट रूप से अद्वैतवाद (mouism ) की ओर संकेत करता है परन्तु उस तक पहुचता नहीं, इससे आगे तर्क असम्भव है परम ब्रह्म निवचनीय और केवल ज्ञान गोचर है ।
आत्म स्वरूप का वर्णन अष्टपाहुड में भरा पड़ा है और प्रत्येक प्रकरण इसका उल्लेख है । आत्मा, अनात्मा ( पर द्रव्य अथवा शरीर ) से भिन्न है । पर द्रव्य में शरीर अथवा इंद्रिय भी संयुक्त है। यह स्वतन्त्र तथा अविभाज्य है । यह अपने भाव स्वयं ही प्रगट कर सकती है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब इसमें सन्निहित होते हैं । साम्यभाव इसमें स्वाभाविक होता है । सारी कषाय भावनाएं और प्रत्येक प्रकार की क्रिया चाहे वे अच्छी हों या बुरी, अथवा उदासीन इससे अपरिचित होती हैं। जो भी अन्य रूप आत्मा प्रगट हात है वे कम के रूप में पर