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गाथा- लावएणसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स।
सो सीलो स महप्पा भमित्त्य गुणवित्त्थरं भविए ॥३६॥ छाया-लावण्यशीलकुशलः जन्ममहीरुहः यस्य श्रमणस्य ।
सः शीलः स महात्मा भ्रमेत गुणविस्तारः भवे ॥ ३६॥ अर्थ-जिस मुनि का जन्मरूप वृक्ष लावण्य (सर्वप्रिय होना) और शील (आत्म
स्वभाव का अनुभव ) धारण करने में चतुर है, वही शीलवान् और महात्मा है तथा उसके गुणों का विस्तार संसार में फैलता है ॥ ३६॥
गाथा-णाण झाणं जोगो दसणसुद्धी य वीरियायत्तं ।
सम्मत्तदसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥ ३७॥ छाया-ज्ञानं ध्यानं योगः दर्शनशुद्धिश्च वीर्यायत्ताः।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिम् ॥ ३७ ॥ अर्थ- ज्ञान, ध्यान ( मन की स्थिरता), योग ( समाधि लगाना ) और निरतीचार
सम्यग्दर्शन ये गुण वीर्य के आधीन हैं अर्थात् यथाशक्ति धारण करने चाहिये। तथा सम्यग्दर्शन से रत्नत्रय प्राप्त होता है ऐसा जिन शासन में कहा है । यह रत्नत्रय आत्मा का स्वभाव है, इसी को शील भी कहते हैं ॥ ३७॥
गाथा- जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तपोधणा धीरा ।
सीलसलिलेण शहादा ते सिद्धालयसुहं जंति ॥ ३८ ॥ छाया-जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः।
शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यान्ति ॥ ३८॥ अर्थ-जिन जीवों ने जिनभगवान् के उपदेश से वस्तु का यथार्थस्वरूप जान लिया
है, जो विषयों से विरक्त हैं, तपरूप धन के स्वामी हैं, धैर्यवान हैं तथा ' शीलरूप जल से स्नान कर चुके हैं अर्थात् आत्मा को पवित्र कर लिया है, वे मोक्ष के अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं ॥३८॥
गाथा- सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिया मणविसुद्धा।
पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणा पयडा ॥३॥