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(८) शीलपाहुड
गाथा - वीरं विसालणयां रत्तुप्पलकोमलसमप्पावं । तिविहे पणमिणं सीलगुणाणं निसामेह ॥ १ ॥ छाया - वीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसमपादम् । त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ॥ १ ॥
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं समस्त पदार्थों को देखने वाले और लाल कमल के समान कोमल चरण वाले श्रीवर्द्धमान स्वामी को मन वचन काय से नम - स्कार करके शील अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक गुणों को कहता हूँ ॥ १ ॥
गाथा - सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहिं गिट्टिो | वरिय सीले विणा विसया खाणं विरणासंति ॥ २ ॥
छाया - शीलस्य च ज्ञानस्य च नास्ति विरोधः बुधैः निर्दिष्टः । केवलं च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयन्ति ॥ २ ॥
अर्थ- ज्ञानी पुरुषों ने शील और ज्ञान का विरोध नहीं बताया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि शील के बिना इंन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते
हैं ॥ २ ॥
गाथा
- दुक्खेणेयदि गाणं गाणं खाऊण भावरणा दुक्खं । भावियमई य जीवो विसएस विरज्जए दुक्खं ॥ ३ ॥
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छाया - दुःखेनेयते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावितमतिश्च जीवः विषयेषु विरज्यते दुःखम् ॥ ३ ॥
अर्थ- - ज्ञान बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है, और ज्ञान को पाकर, भी उसकी भावना करना उससे भी कठिन है । तथा ज्ञान की भावना वाला जीव aon से विषयों का त्याग करता है ॥ ३ ॥