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________________ [ १२१ ] अर्थ-जो पापबुद्धि वाले मुनि तीर्थकरों की नग्नमुद्रा धारण करके भी पाप करते हैं वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत अर्थात् भ्रष्ट हैं ॥ ८ ॥ गाथा-जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला । आधा कम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥ ७६ ।। छाया- ये पंचचेलसक्ताः प्रन्थप्राहिणः याचनाशीलाः। अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे ॥ ६ ॥ अर्थ-जो पांच प्रकार के वस्त्रों में से किसी एक को धारण करते हैं, धनधान्यादि परिग्रह रखते हैं, जिनका मांगने का ही स्वभाव है और जो नीच कार्य में लगे रहते हैं, वे मुनि मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हैं ॥ ७ ॥ गाथा-णिग्गंथ मोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥२०॥ छाया- निर्ग्रन्थाः मोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः । पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे ॥८॥ अर्थ-जो परिग्रह रहित हैं, स्त्रीपुत्रादि के मोह से रहित हैं, बाईस परीषहों को सहते हैं, कषायों को जीतने वाले हैं, पापरूप आरम्भ रहित हैं वे मुनि मोक्षमार्ग में ग्रहण किये गये हैं ॥८॥ गाथा- उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झ ण अहयमेगागी। __ इय भावणए जोई पार्वति हु सासयं सोक्खं ॥१॥ छाया- ऊर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी। इति भावनया योगिनः प्राप्नुवन्ति हि शाश्वतं सौख्यम् ॥१॥ अर्थ- अवलोक, मध्यलोक और अधोलोक में मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला ही हूं। ऐसी भावना के द्वारा योगी लोग निश्चय से अविनाशी सुख अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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