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________________ [ ११६ छाया- येन रागः परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् । तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम् ॥ १॥ अर्थ- जिस कारण से परद्रव्य में किया हुआ रागभाव संसार का कारण है, इसीलिये योगी को हमेशा आत्मा की भावना करनी चाहिये ॥ ७१ ॥ गाथा-णिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तूणं चेव बधूणं चारित्तं समभावदो ॥ ७२ ।। छाया-निन्दायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रूणां चैव बन्धूनां चारित्र,समभावतः ॥ ७२ ।। .. अर्थ- निन्दा और प्रशंसा में, दुःख और सुख में तथा शत्रु और मित्र में समता परिणाम होने पर यथाख्यात चारित्र होता है ॥७२॥ गाथा-चरियावरिका वदसमिदिवजिया सुद्धभावपन्भट्ठा । केई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।। ७३ ।। छाया- चर्यावरिका व्रतसमितिवर्जिताः शुद्धभावप्रभ्रष्टाः । केचित् जल्पन्ति नराः नहि कालो ध्यानयोगस्य ।। ७३ ॥ अर्थ- जिनका चारित्र आवरणसहित है, जो व्रत और समिति रहित हैं तथा शुद्ध भावों से अत्यन्त भ्रष्ट हैं, ऐसे कुछ मिथ्यादृष्टी लोग कहते हैं कि यह पञ्चम काल ध्यानयोग का समय नहीं है ।। ७३ ॥ गाथा-सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को। .. . संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ माणस्स ।। ७४ ॥ छाया- सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवः स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः। संसारसुखे सुरतः न स्फुट कालः भणति ध्यानस्य ।। ७४॥ अर्थ- जो जीव सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहित है, अभब्य है, मोक्षमार्ग से अलग है. तथा संसार के सुख में अत्यन्त आसक्त है वह कहता है कि यह ध्यान का समय नहीं है ॥५४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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