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________________ [११५] अर्थ-जो पुरुष इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले ज्ञान ही को मानता है, वह केवल ज्ञान के खण्ड रूप दोष को पैदा करने वाला है। उस ज्ञान के द्वारा वह पुरुष अज्ञानी तथा जिनमत में दोष लगाने वाला होता है ।। ५६ ॥ गाथा-गाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं । अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥ ५७ ॥ __छाया-ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम् । अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम् ॥ ५७ ॥ अर्थ-जहां ज्ञान चारित्र रहित है, दर्शन रहित किन्तु तप सहित है, तथा जहां अन्य आवश्यकादि क्रियाओं में शुद्धभाव नहीं है, ऐसे भेषमात्र को धारण करने वाले मुनि के क्या मोक्ष सुख हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता ॥ ५७ ॥ गाथा-अच्चेयणं पि चेदा जो मरणइ सो हवेइ अण्णाणी । सो पुण णाणी भणिो जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥ ५८ ॥ छाया-अचेतनमपि चेतनं यः मन्यते सः भवति अज्ञानी । ___ स पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम् ॥ ५८ ॥ अर्श-जो अचेतन को चेतन मानता है वह अज्ञानी है, और जो चेतन को चेतन . मानता है वह ज्ञानी कहा जाता है ॥ ५८ ॥ गाथा-तवरांहयं जं णाणं णाणविजुत्तो तवोवि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५६ ॥ छाया-तपोरहितं यज्ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपः अपि अकृतार्थम् । ___तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥ ५६ ॥ अर्थ-तपरहित ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान रहित तप भी व्यर्थ है । इसलिये ज्ञान सहित तप धारण करने वाला मुनि मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५६ ॥ गाथा-धुवसिद्धी तित्त्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥६॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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