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[११०] अर्थ-सम्यग्दर्शन से शुद्ध पुरुष ही वास्तव में शुद्ध है, क्योंकि जो सम्यग्दर्शन से
शुद्ध है वही मोक्ष प्राप्त करता है । तथा जो पुरुष सम्यग्दर्शन रहित है.वह अपने इच्छित लाभ अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता ॥ ३ ॥
गाथा-इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु।
तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ॥ ४०॥ छाया-इति उपदेशं सारं जरामरणहरं स्फुटं मन्यते यत्तु ।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि ॥४०॥ अर्थ-ऐसा रत्नत्रय का उपदेश बहुत ही उत्तम और बुढ़ापा, मृत्यु आदि का नाश
करने वाला है। जो इसका यथार्थ श्रद्धान करता है वह सम्यग्दर्शन मुनियों और श्रावकों के लिये कहा गया है ॥४०॥
गाथा-जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण।
तं सरणाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरिसीहिं ॥ ४१ ।। छाया-जीवाजीवविभक्तं योगी जानाति जिनवरमतेन ।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥ ४१ ।। अर्थ-जो योगी जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा से जीव और अजीव के भेद को
जानता है वह सर्वज्ञ देव के द्वारा यथार्थ रूप से सम्यज्ञान कहा गया है॥४१॥
गाथा-जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणियं अवियप्पं कम्मरहियेण ।। ४२ ।। छाया-यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यापियोः ।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितेन ।। ४२ ।। अर्थ-ध्यानी मुनि जिस जीवाजीव के भेद को जानकर पुण्य व पाप क्रियाओं का
त्याग करता है, वह विकल्प रहित यथाख्यात चारित्र है; ऐसा घातिया कर्मों के नाश करने वाले सर्वज्ञदेव ने कहा है ॥ ४२ ॥